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गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

महिला अपराध और सरकारी संरक्षण

                                            देश में विमर्श का स्तर जितना नीचे गिरता जा रहा है उसे देखते हुए आने वाले समय में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचारों में भी अगर धर्म जाति को देखकर सरकारें काम करना शुरू कर देंगीं तो संविधान की मूल भावना का साथ किस तरह से न्याय किया जा सकेगा ?  ताज़ा प्रकरणों में जिस तरह से कठुआ और उन्नाव में लड़कियों के खिलाफ होने वाले अपराधों में भी पार्टी और धर्म के साथ जातियों को भी प्राथमिकता दी जा रही है उससे निश्चित तौर पर सरकार और सत्ताधारी दल कटघरे में आ जाते हैं.  वैसे यह कोई नयी बात नहीं है क्योंकि इस तरह के मामले सामने आने पर अधिकांश जगहों पर इस तरह की दलीलें सरकारें हमेशा से ही देती रही हैं पर आज़ादी के बाद से जिस तरह से कांग्रेस समेत अन्य दलों पर जनसंघ और भाजपा यह आरोप लगाती रहती थी कि सरकार में बैठे लोग पूरी तरह से अपने लोगों की रक्षा करते रहते हैं पर अब जब जम्मू कश्मीर और यूपी में वह खुद सरकार चला रही है तो आरोपितों के साथ वह खुद भी उसी तरह का व्यवहार कर रही है जिससे विपक्ष में रहते हुए उन्हें सबसे बड़ी आपत्ति होती थी.
                                  कठुआ मामला जिस तरह से धार्मिक और पार्टी साथ राष्ट्रीय झंडों के साथ आगे बढ़ाया जा रहा है वह निश्चित रूप से पूरे समाज को इस तरह के आवरणों के पीछे  छिपकर कुछ भी अनैतिक करके बच निकलने का मार्ग नहीं दिखा रहा है ?  धर्म के आधार पर एक ८ साल की लड़की के साथ हुए दुष्कर्म और उसकी निर्मम हत्या के बाद भी यदि राष्ट्रीय महिला आयोग, बाल आयोग और साथ ही अन्य ज़िम्मेदार लोग यदि बोलना भी उचित नहीं समझ रहे हैं तो समाज की स्थिति और नेताओं की मानसिकता को अच्छी तरह से समझा जा सकता है।  जम्मू क्षेत्र में आरोपपत्र दाखिल होने से रोकने के लिए वकील सामने आ जाते हैं तो श्रीनगर में अलगाववादी इस मौके को आज़ादी से आगे ले जाकर निजाम-ए -मुस्तफा तक पहुँचाने में लगे हैं क्योंकि आज़ादी का मामला उन्हें उतना लाभ नहीं दिलवा पा रहा है।
                                  यूपी में जिस तरह से एक आरोपी विधायक के खिलाफ क़ानून अपने आप को लचर पा रहा है वह क्या सत्ता की विफलता और सरकार की संविधान में निष्ठा पर संदेह उत्पन्न नहीं करता है फिर भी सरकार की तरफ से कानून की रक्षा किस तरह से की जाएगी ? अच्छा होता कि सरकार की तरफ से इस मामले में आरोपों के आधार पर स्वतः ही कार्यवाही शुरू की जाती और आरोपों की निष्पक्ष जांच की जाती जिससे पीड़िता और आम लोगों को यह लगता कि सरकार सही मंशा से काम कर रही है फिर भी इस मामले में सरकार की तरफ से जानबूझ कर किये गए विलम्ब से केवल उसकी छवि को ही नुकसान पहुंचा है. इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जिस तरह से इस मामले में दायर की गयी याचिका को जनहित याचिका में बदल दिया गया है उससे अब सरकार को न चाहते हुए भी वही सब करना होगा जिससे बचने की कोशिश में वह लगी थी.     
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