वर्तमान में चल रहे विधान सभा चुनावों के बीच जिस तरह से चुनाव आयोग के पर करतने जैसी बातें सामने आ रही हैं उनका कोई मतलब नहीं है क्योंकि अभी जो चुनाव चल रहे हैं उन पर इसका कोई असर नहीं पड़ने वाला है फिर जनता का ध्यान भटकाने के लिए नेता लोग इस तरह की बातें क्यों कर रहे हैं यह समझ से परे है ? बीच चुनावों में जब बात मूलभूत आवश्यकताओं और सुविधाओं की होनी चाहिए तो नेता आयोग और चुनाव सुधार की बातें करके जनता का ध्यान समस्याओं की तरफ़ से हटाकर दूसरी तरफ मोड़ना चाहते हैं क्योंकि इससे उनको उन असहज कर देने वाले सवालों का जवाब देने से बचने का मौका मिल जाता है ? पर अब जनता यह सारा नाटक जान चुकी है और इस तरह की किसी भी गतिविधि का कोई बड़ा असर किसी पर नहीं पड़ने वाला है. देश में चुनाव आयोग अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण और शक्तिशाली संस्था है और इसके बारे में किसी को भी कुछ भी बोलने से पहले अपनी पार्टी लाइन और अपने विचारों को ठीक कर लेना चाहिए क्योंकि चुनाव के समय में कुर्सी फिसलते देख कर अच्छे अच्छे नेताओं की ज़बान फिसलने में देर नहीं लगती हैफिर वे बाद में आयोग और जनता के सामने यह कहते फिरते हैं कि उनकी मंशा ऐसी नहीं थी लोगों ने उनके बयान को गलत तरीके से पेश कर दिया है ?
क्या देश का राजनैतिक तंत्र इतना परिपक्व है कि वह इस बात को समझ सके कि कहाँ पर क्या कहना है और कब चुप रहना है ? मेरे अनुसार तो बिलकुल भी नहीं क्योंकि जब बातें करनी होती हैं तो बड़े बड़े आदर्शों की बातें करने के मामले में इन्हें कोई छू भी नहीं सकता है पर जब यथार्थ पर कुछ करने का अवसर आता है तो जैसे इनके पास विचारों का अकाल ही पड़ जाता है ? संसद और विधान सभा को बाज़ार बनाकर कभी भी कोई महत्वपूर्ण काम नहीं किये जा सकते हैं यह भी अभी इन नेताओं को समझना ही होगा. विधान सभा चुनावों के दौरान चुनाव सुधारों की बातें करना देश के साथ छल है क्योंकि ख़ुद चुनाव आयोग भी अब व्यापक चुनाव सुधारों के पक्ष में है पर नेताओं को आयोग की उन सुझावों को लागू करने में दिलचस्पी ही नहीं है क्योंकि कहीं न कहीं वे इन नेताओं के गले कि फाँस ही बनने वाले हैं. ऐसे में कुछ भी करना नेताओं के लिए वर्तमान तंत्र के अस्तित्व को बचाने पर संकट जैसा ही होने वाला है. आयोग अगर आज की तकनीक और अन्य सुधारों की पैरवी कर रहा है तो इससे देश का ही भला होने वाला है क्योंकि समय के साथ नहीं बदलने से आयोग के काम काज में काफी परिवर्तन पीछे रह सकते हैं जो बहुत ही आवश्यक हैं.
ऐसी स्थिति में सरकार को चुनाव सुधारों पर व्यापक बहस करनी चाहिए और इस बारे में जनता से भी राय मांगी जानी चाहिए क्योंकि किसी को नहीं पता कि कौन किस तरह से सोच सकता है और देश के लिए जब जनता को सोचने का अवसर मिलेगा तो देश के लिए बहुत अच्छी योजनायें और नियम बनाने में काफी हद तक आसानी हो जाएगी ? पर अपने को माननीय कहलाना पसंद करने वाले हमारे नेता चुनाव जीतने के बाद जिस तरह से अपने को लोकतंत्र का पुरोधा समझ लेते हैं उससे बहुत बड़ी समस्याएं जन्म लेती है और उनसे निपटने में एक स्तर पर ये राजनेता पूरी तरह से विफल हो जाते हैं ? नेताओं को अपने अनुसार किसी भी सुधार की अनुमति नहीं दी जा सकती है क्योंकि अब देश की आवश्यकता है कि किसी भी स्तर पर जनता को नेताओं को नकारने का अवसर भी वोट देते समय मिलना चाहिए और इसके एक प्रतिशत निर्धारित होना चाहिए जिससे उतने नकारात्मक वोट पड़ जाएँ तो चुनाव मैदान में उतरने वाले सभी नेताओं के लिए अगले १० वर्षों तक किसी भी चुनाव के लड़ने पर पाबंदी लगा दी जानी चाहिए जिससे नेताओं के मन में यह भय भी आये कि जनता उन्हें १० साल के लिए प्रतिबंधित भी कर सकती है. यह एकमात्र ऐसा सुधार है जो तुरंत किया जाना चाहिए जिसके दम पर बाक़ी के सुधार अपने आप ही हो जायेंगें.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
क्या देश का राजनैतिक तंत्र इतना परिपक्व है कि वह इस बात को समझ सके कि कहाँ पर क्या कहना है और कब चुप रहना है ? मेरे अनुसार तो बिलकुल भी नहीं क्योंकि जब बातें करनी होती हैं तो बड़े बड़े आदर्शों की बातें करने के मामले में इन्हें कोई छू भी नहीं सकता है पर जब यथार्थ पर कुछ करने का अवसर आता है तो जैसे इनके पास विचारों का अकाल ही पड़ जाता है ? संसद और विधान सभा को बाज़ार बनाकर कभी भी कोई महत्वपूर्ण काम नहीं किये जा सकते हैं यह भी अभी इन नेताओं को समझना ही होगा. विधान सभा चुनावों के दौरान चुनाव सुधारों की बातें करना देश के साथ छल है क्योंकि ख़ुद चुनाव आयोग भी अब व्यापक चुनाव सुधारों के पक्ष में है पर नेताओं को आयोग की उन सुझावों को लागू करने में दिलचस्पी ही नहीं है क्योंकि कहीं न कहीं वे इन नेताओं के गले कि फाँस ही बनने वाले हैं. ऐसे में कुछ भी करना नेताओं के लिए वर्तमान तंत्र के अस्तित्व को बचाने पर संकट जैसा ही होने वाला है. आयोग अगर आज की तकनीक और अन्य सुधारों की पैरवी कर रहा है तो इससे देश का ही भला होने वाला है क्योंकि समय के साथ नहीं बदलने से आयोग के काम काज में काफी परिवर्तन पीछे रह सकते हैं जो बहुत ही आवश्यक हैं.
ऐसी स्थिति में सरकार को चुनाव सुधारों पर व्यापक बहस करनी चाहिए और इस बारे में जनता से भी राय मांगी जानी चाहिए क्योंकि किसी को नहीं पता कि कौन किस तरह से सोच सकता है और देश के लिए जब जनता को सोचने का अवसर मिलेगा तो देश के लिए बहुत अच्छी योजनायें और नियम बनाने में काफी हद तक आसानी हो जाएगी ? पर अपने को माननीय कहलाना पसंद करने वाले हमारे नेता चुनाव जीतने के बाद जिस तरह से अपने को लोकतंत्र का पुरोधा समझ लेते हैं उससे बहुत बड़ी समस्याएं जन्म लेती है और उनसे निपटने में एक स्तर पर ये राजनेता पूरी तरह से विफल हो जाते हैं ? नेताओं को अपने अनुसार किसी भी सुधार की अनुमति नहीं दी जा सकती है क्योंकि अब देश की आवश्यकता है कि किसी भी स्तर पर जनता को नेताओं को नकारने का अवसर भी वोट देते समय मिलना चाहिए और इसके एक प्रतिशत निर्धारित होना चाहिए जिससे उतने नकारात्मक वोट पड़ जाएँ तो चुनाव मैदान में उतरने वाले सभी नेताओं के लिए अगले १० वर्षों तक किसी भी चुनाव के लड़ने पर पाबंदी लगा दी जानी चाहिए जिससे नेताओं के मन में यह भय भी आये कि जनता उन्हें १० साल के लिए प्रतिबंधित भी कर सकती है. यह एकमात्र ऐसा सुधार है जो तुरंत किया जाना चाहिए जिसके दम पर बाक़ी के सुधार अपने आप ही हो जायेंगें.
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