सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायायधीश न्यायमूर्ति टी एस ठाकुर ने एक बार फिर सरकार से इस बात का आग्रह किया है कि उसकी तरफ से ऐसे तंत्र को बनाये जाने की कोशिश की जानी चाहिए जिससे पहले से ही न्यायाधीशों की कमी से जूझ रहे न्यायालयों पर अनावश्यक काम के बोझ को कम किया जा सके. उनका यह कहना कि कई बार सरकार के तंत्र के निर्णय लेने में विफल होने पर ही अदालतों पर अनावश्यक बोझ बढ़ता है जिसे अपने स्तर से प्रक्रियागत सुधार करके सरकार इस स्थिति में सुधार भी कर सकती है. बहुत सारे ऐसे मामलें होते हैं जो थोड़ी प्रशासनिक दक्षता के साथ कोर्ट के बाहर ही सुलझाए जा सकते हैं पर आज भी वे किसी न किसी रूप में कोर्ट्स तक पहुँच कर अदालतों के आवश्यक कामों में देरी का कारण भी बनते हैं. उनका एक सुझाव यह भी था कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों का एक पैनल भी होना चाहिए जो किसी भी मामले के कोर्ट तक पहुँचने से पहले ही उसको सुलझाने का काम कर सके जिससे कोर्ट्स के बोझ का कम किया जा सके और सरकार एवं आम लोगों से जुड़े मुद्दों और मुक़दमों के लिए कोर्ट्स के पास सही समय उपलब्ध रह सके.
अभी तक जिस तरह से सरकारों की मंशा देश के स्वतंत्र न्याय तंत्र को अपने दबाव में लेने की रहा करती है कॉलेजियम सिस्टम के चलते वह पूरी नहीं हो पा रही है और नेताओं को कहीं न कहीं से यह भी लगता है कि संविधान में कोर्ट्स को जितने अधिकार दिए गए हैं वे आवश्यकता से अधिक है क्योंकि बहुत बार ऐसा भी होता है कि सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों को कोर्ट्स में पलट दिया जाता है और उससे सरकार की किरकिरी भी होती है और उसको प्रशासनिक क्षमता पर भी सवाल उठ खड़े होते हैं. ऐसी किसी भी अप्रिय परिस्थिति से निपटने के लिए जिस तरह का सुझाव न्यायमूर्ति ठाकुर द्वारा दिया गया है वह आने वाले समय में बेहद कारगर भी हो सकता है क्योंकि उससे जहाँ विवादों को कोर्ट्स में जाने से पहले ही रोका जा सकेगा वहीं सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और अधिकारियों के पास भी किसी संभावित विवाद के बारे में पूरी स्थिति साफ़ होने के बाद उसमें संशोधन कर आवश्यकता के अनुरूप करने में मदद भी मिल जाया करेगी. इस तरह के तंत्र से कानूनी अड़चनों को दूर करने के साथ ही बेहतर समन्वय के साथ सरकार की नीतियों को पूरी तरह सुधार कर लागू किया जा सकेगा.
इस तरह का प्रयास केवल शीर्ष स्तर पर ही करने के स्थान पर काम के बोझ को निचले स्तर तक बांटकर आसान भी किया जा सकता है. यदि आने वाले समय में जनपद स्तर पर भी इसी तरह की व्यवस्था की जा सके और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों का एक पैनल हर ज़िले में बनाया जा सके जो किसी भी आम व्यक्ति के लिए कोर्ट जाने से पहले सुलह सफाई का काम भी देख सकता हो तो इससे कोर्ट्स का काम काफी हद तक हल्का करने में सहायता भी मिल सकती है. जब काम एक सीमा के अंदर हो जायेगा तो उससे पहले से लंबित मुक़दमों की सुनवाई भी आसानी से करने के बाद उनका निपटारा भी आसान हो जायेगा. निश्चित तौर पर सरकार के पास इस तरह से काम करने का विकल्प भी है जिसके माध्यम से वह जजों की संख्या बढ़ाये बिना भी कोर्ट्स के काम को आसान करने की तरफ सोच सकती है. आशा की जानी चाहिए कि न्यायमूर्ति ठाकुर की इस बात पर भी सरकार गंभीर विचार कर कानून मंत्रालय के माध्यम से एक नया तंत्र विकसित करने के बारे में सोचेगी जो आने वाले समय में देश के लंबित मुक़दमों की संख्या कम करने के साथ कोर्ट्स के अनावश्यक बोझ को भी कम करने का काम करेगा.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
अभी तक जिस तरह से सरकारों की मंशा देश के स्वतंत्र न्याय तंत्र को अपने दबाव में लेने की रहा करती है कॉलेजियम सिस्टम के चलते वह पूरी नहीं हो पा रही है और नेताओं को कहीं न कहीं से यह भी लगता है कि संविधान में कोर्ट्स को जितने अधिकार दिए गए हैं वे आवश्यकता से अधिक है क्योंकि बहुत बार ऐसा भी होता है कि सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों को कोर्ट्स में पलट दिया जाता है और उससे सरकार की किरकिरी भी होती है और उसको प्रशासनिक क्षमता पर भी सवाल उठ खड़े होते हैं. ऐसी किसी भी अप्रिय परिस्थिति से निपटने के लिए जिस तरह का सुझाव न्यायमूर्ति ठाकुर द्वारा दिया गया है वह आने वाले समय में बेहद कारगर भी हो सकता है क्योंकि उससे जहाँ विवादों को कोर्ट्स में जाने से पहले ही रोका जा सकेगा वहीं सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और अधिकारियों के पास भी किसी संभावित विवाद के बारे में पूरी स्थिति साफ़ होने के बाद उसमें संशोधन कर आवश्यकता के अनुरूप करने में मदद भी मिल जाया करेगी. इस तरह के तंत्र से कानूनी अड़चनों को दूर करने के साथ ही बेहतर समन्वय के साथ सरकार की नीतियों को पूरी तरह सुधार कर लागू किया जा सकेगा.
इस तरह का प्रयास केवल शीर्ष स्तर पर ही करने के स्थान पर काम के बोझ को निचले स्तर तक बांटकर आसान भी किया जा सकता है. यदि आने वाले समय में जनपद स्तर पर भी इसी तरह की व्यवस्था की जा सके और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों का एक पैनल हर ज़िले में बनाया जा सके जो किसी भी आम व्यक्ति के लिए कोर्ट जाने से पहले सुलह सफाई का काम भी देख सकता हो तो इससे कोर्ट्स का काम काफी हद तक हल्का करने में सहायता भी मिल सकती है. जब काम एक सीमा के अंदर हो जायेगा तो उससे पहले से लंबित मुक़दमों की सुनवाई भी आसानी से करने के बाद उनका निपटारा भी आसान हो जायेगा. निश्चित तौर पर सरकार के पास इस तरह से काम करने का विकल्प भी है जिसके माध्यम से वह जजों की संख्या बढ़ाये बिना भी कोर्ट्स के काम को आसान करने की तरफ सोच सकती है. आशा की जानी चाहिए कि न्यायमूर्ति ठाकुर की इस बात पर भी सरकार गंभीर विचार कर कानून मंत्रालय के माध्यम से एक नया तंत्र विकसित करने के बारे में सोचेगी जो आने वाले समय में देश के लंबित मुक़दमों की संख्या कम करने के साथ कोर्ट्स के अनावश्यक बोझ को भी कम करने का काम करेगा.
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आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति कादम्बिनी गांगुली और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
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