मुंबई आतंकी हमलों के १ वर्ष बाद भी जिस तरह से कुछ मामलों में सरकार और पुलिस की भूमिका सामने आ रही है उससे यह तो पता ही चलता है कि २६/११ को कुछ तो अवश्य ऐसा हुआ है जिसमें कई बड़े लोगों की लापरवाही साबित हो सकती है। इस सबके चलते ही शहीद हेमंत करकरे की पत्नी कविता करकरे उन पलों को याद करते ही भावुक हो जाती हैं। वे जो प्रश्न पूछती है उनका उत्तर तो पुलिस अधिकारियों के पास ही नहीं है जबकि सभी अधिकारी जानते हैं आज के आतंक के युग में कोई भी सुरक्षित नहीं है। कल जो करकरे के साथ हुआ वो कभी भी किसी और के साथ भी घट सकता है। अच्छा हो कि इस मामले में निष्पक्षता से जांच करायी जाए कि किस स्तर पर चूक हुई जिससे पुलिस के इतने बड़े अधिकारी आतंकी के चंगुल में चले गए। जैसा कि कहा जा रहा है कि तीनों शहीद अधिकारी ४० मिनट तक योजना बनाते रहे पर कोई सहायता नहीं मिलने पर उन्होंने स्वयं आगे आकर कुछ करने की सोची। इस प्रयास में ही उनकी जान चली गई। यह सही है कि देश में इस तरह के किसी भी हमले से निपटने के अभी भी पूरे इंतज़ाम नहीं हैं फिर भी उपलब्ध संसाधनों का सही प्रयोग करके कुछ सही प्रयास तो किए ही जा सकते हैं। आज इस बात की ज़रूरत है कि आपदा प्रबंधन के लिए नागरिकों को भी सही तरह से प्रशिक्षित किया जाए जिससे समय आने पर हम सभी किसी तरह से समस्या के कारक नहीं बने। एक ऐसी नियमावली होनी चाहिए जो यह बता सके कि कहाँ पर क्या गड़बड़ हो सकती है और हमें ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए ? यदि नागरिकों का सही दिशा में समर्थन मिले तो प्रशासन को भी काम करने में आसानी हो जाती है। आज देश को कविता के सवालों का जवाब तो देना ही चाहिए क्योंकि उनके पति ने इस देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दी है उनका यह बलिदान बेकार न चला जाए इसके लिए सभी को अपने कर्तव्य का पालन करते हुए उनको सही श्रद्धांजलि देनी चाहिए.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
nice
जवाब देंहटाएंसर्वप्रथम तो
जवाब देंहटाएंआपको इस बात की बधाई कि आपका लेख कही छपा है !
मुझे जो लगता है या यूँ कहूँ कि शहीद करकरे प्रसंग को जो अब तक मैंने पढने की कोशिश की तो मेरे समक्ष दो बाते आयी, एक यह कि शहीद करकरे शिखर पर पहुँचने के लिए बहुत ही उत्साही ( सही शब्द नहीं ढूंढ पा रहा ) किस्म के इंसान थे और जीवन की बुलंदियां छूने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तत्पर थे !
जिसकी संभावना इतनी मजबूत मुझे नहीं दिखाई देती !
दूसरी बात, सहेद करकरे एक निहायत भोले और सीधे-साधे नेचर के इंसान थे और सियासी दवाव में आकर कुछ भी कर डालते थे, जोकि उन्हें खुद भी लगता था कि वे गलत कर रहे है मगर ऊपर से राजनैतिक दबाव की मजबूरी थी !
जिसकी संभावना मुझे अधिक लग रही है ! और उन्हें शायद इरादतन आतंकवादी वारदात की जगह पर जाने के लिए दबाव डाला गया था !क्योंकि सियासी मकसद पूरा होने के बाद राजनीति के धुरंदर उन्हें अपने लिए भविष्य में एक ख़तरा समझने लगे थे !