राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल की चीन यात्रा के दौरान इस बार आखिर चीन ने भारत की सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता के लिए समर्थन देने की बात कह ही दी. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि चीन वीटो प्राप्त ५ देशों में से है और भारत की दावेदारी के लिए उसका समर्थन बहुत आवश्यक था. भारत चीन सम्बन्ध हमेशा से ही संदेह के घेरे में रहते हैं और दोनों ही देश एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखते रहते हैं ऐसे में इस बात का ख़तरा तो हमेशा ही था कि कहीं चीन भारत की सदस्यता पर अपने वीटो का इस्तेमाल ना कर दे ? यह सही है कि ६० साल पहले बनाये गए संयुक्त राष्ट्र में अब बहुत सुधार की आवश्यकता है पर जिन देशों ने वहां पर विशेष अधिकार प्राप्त कर रखे हैं वे कभी भी अपने अधिकारों में कटौती नहीं करना चाहेंगे. ऐसे में भारत जैसे देश जिन्होंने अपनी मेधा और श्रम का लोहा पूरी दुनिया में मनवा लिया हो को ये देश आसानी से परिषद् के स्थायी सदस्य नहीं बनाना चाहेंगें.
देश में चाहे कुछ भी होता रहे पर इस तरह के मामलों में भी कुछ लोग राजनीति खेलने लगते हैं जिससे आख़िर में देश के हितों को ही नुकसान होता है. एक बात जो हमारे नीति निर्धारकों को आज तक समझ नहीं आई कि आखिर क्यों हम हर देश के सामने अपना कटोरा लेकर खड़े हो जाते हैं कि हमें भी सुरक्षा परिषद् में जाना है हमारा समर्थन कर दो न ? भारत आज विश्व की उभरती हुई अर्थ व्यवस्था है और यहाँ के लोगों ने विपरीत परिस्थितयों में भी जीना सीख लिया है. विकसित देशों में बहुत बड़े स्तर पर मानव संसाधन हमारे देश का ही लगा हुआ है. ऐसे में हमें किसी भी तरह की सदस्यता के लिए किसी से भी समर्थन नहीं मांगना चहिये. आने वाला समय हमारा है और इस बात को अभी भी हम पहचान नहीं पाए हैं. हम स्वयं जब अपनी दावेदारी के लिए देशों को लामबंद करने में लग जाते है तो समर्थन का स्तर घट जाता है. अच्छा हो कि सरकार कूटनीतिक स्तर पर इस बात का प्रयास करती रहे पर कभी भी किसी देश की आधिकारिक यात्रा के दौरान प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति के जाने के समय इस तरह की कोई भी मांग या समर्थन पर विचार ही न किया जाए.
आख़िर कब तक हम अपने को दूसरे देशों के सामने याचक की भाँति खड़ा रखेंगें ? क्यों नहीं हम आज भी अपना स्तर पहचान पा रहे हैं ? क्यों हम भूल जाते हैं कि आज भारत की मेधा शक्ति के आगे अमेरिका भी नत मस्तक है ? हम अपनी अहमियत क्यों नहीं बता पा रहे हैं ? आज जब हमें दूसरों को समझाने के स्तर पर होना चाहिए तो भी हम केवल कुछ मांगने भर से ही खुश हो जाते हैं ? कब तक आखिर कब तक ये दुनिया ये हौसला रख पायेगी कि वो हमारी अनदेखी कर सके ? १९९८ के प्रतिबन्ध के बाद आख़िर कितने दिनों तक बड़े देश हमारे सामने टिक पाए ? सबसे पहले अमेरिका ने अपने हितों का ध्यान रखते हुए १२३ समझौते की बात की या नहीं ? जब आज हमारे हित इन देशों या इस तरह से कहें कि पूरी दुनिया के साथ जुड़ चुके हैं तो क्यों हम केवल उन बातों के लिए याचक बन जाते हैं जो अन्य देश स्वेच्छा से हमें देने के लिए तैयार हैं ? आखिर कब तक हम सभी अपनी स्थिति और बल को नहीं जान पायेंगें ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
जिन लोगों ने राष्ट्र के लोगों के नागरिक अधिकारों के सुरक्षा को पुख्ता बनाने का प्रयास नहीं किया वे सुरक्षा परिषद का सदस्य बनकर विश्व के लिए क्या करेंगे / हमें व्यवस्था में इमानदार और पारदर्शी लोगों की जरूरत पहले है /
जवाब देंहटाएंचीन से कोई उम्मीद करना मुर्खता के सिवाय कुछ नहीं होगा, चीन समर्थन नहीं करेगा, उसे तिब्बत, अरुणाचल, सिक्किम में पंगे लेने है
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