मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 11 जून 2010

माया का मायातंत्र ?

      देश में सबसे अजीबो गरीब फैसले लेने में माहिर माया सरकार ने आखिर में एक ऐसा मसला उठा दिया है जो लोकतंत्र में उनकी श्रद्धा और विश्वास पर ही प्रश्नचिन्ह लगाता है ? एक तरफ जहाँ लोकतंत्र को निचले स्तर तक पहुँचाने  की कवायद की जा रही है वहीं देश के निचले स्तर पर नगर निगमों और अन्य निकायों की चुनाव प्रक्रिया में बहुत बड़ा फेर बदल करके पता नहीं माया किस तरह से अपने को लोकतंत्र में सही साबित करना चाहती हैं ? स्थानीय निकायों में जिस तरह से अब ४ के स्थान पर १२ सदस्यों को नामित किये जाने का प्रस्ताव किया गया है उससे तो यही लगता है कि सरकार ने लोकतंत्र की हत्या करने का मन बना ही लिया है. बसपा एक ऐसी पार्टी हैं जो लोकतंत्र में विश्वास नहीं करती है और वहां पर वही होता है जो माया को पसंद हो फिर भी देश के संविधान की मूल भावना और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के स्वराज और सुराज की कल्पना करना तो इस सरकार के बूते की बात हो ही नहीं सकती है. यह वही बसपा है जो गाँधी जी को बुरा भला कहने में भी नहीं चूकती है फिर इससे किस तरह के लोकतंत्र की आशा की जा सकती है ?
         जब स्थानीय निकायों के लिए एक अलग से पूरा तंत्र है तो उसमें सुधार किया जाना चाहिए साथ ही इस पूरे मसले में अगर कहीं पर कुछ गलत लगता है तो उस पर विपक्षी दलों के साथ विचार विमर्श करने के बाद ही किसी संशोधन की बात की जानी चाहिए. इस तरह से बिना किसी को बताये अचानक ही रातों रात कुछ अपने मन का करने के चक्कर में मनमानी करना आख़िर कब तक चलेगा ? शायद माया यह भूल जाती हैं कि वे अब बसपा नहीं वरन देश के सबसे बड़े सूबे की मुखिया भी हैं ? किसी भी लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी किसी भी संस्था को इस तरह से प्रभावित करने की उनकी मंशा क्या प्रदर्शित करती है ? अगर सरकार में दम है तो वह इन संस्थाओं को समाप्त ही क्यों नहीं कर देती है ? अगर उन्हें इन सभी का होना बेमानी लगता है तो फिर खुद क्यों पिछले दरवाज़े से विधान सभा में जाने की मंशा रखती हैं ? उन्हें तो खुद चुनाव लड़कर आगे आना चाहिए साथ ही विधान परिषद् और राज्य सभा को ख़त्म करने की मांग करनी चाहिए ?
       इस देश को नेताओं ने खाला का घर समझा हुआ है वे यह भूल जाते हैं कि कभी खाला को भी उनकी नादानी पर गुस्सा आ सकता है तो इनको सर छिपाने के लिए कहीं भी जगह नहीं मिलने वाली है. अच्छा होगा कि सरकारें  इस तरह की तुगलकी  हरकतें करने के स्थान पर देश के भविष्य को संवारने में जुटें. देश का लोकतान्त्रिक ढांचा बहुत मज़बूत है और इसे पुख्ता करना की कोशिश होनी चाहिए न कि इसकी जड़ें खोदने के प्रयास होने चाहिए. माया को अपनी पार्टी को कौन सा चुनाव लड़ाना है और कौन सा नहीं यह बाद की बात है पर देश का संविधान किसी माया का गुलाम नहीं हो सकता है कि वे जब चाहें मनमानी करती रहें ? अगर उन्हें लोकतंत्र में विश्वास नहीं है तो वे बेशक अपनी पार्टी को कोई भी चुनाव लड़ाएं यह उनका अपना मामला है इससे देश को कोई सरोकार नहीं है.   

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4 टिप्‍पणियां:

  1. शायद माया यह भूल जाती हैं कि वे अब बसपा नहीं वरन देश के सबसे बड़े सूबे की मुखिया भी हैं

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  2. लोकतंत्र ? अरे काहे का लोकतंत्र, कोई लोकतंत्र नहीं है यहाँ

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  3. दिल्ली में माया कांग्रेस एक साथ और यूपी में लड़ने का दिखावा , सीबीआई का बढिया प्रयोग हो रहा है माया के कर्मो में कांग्रेस भी दोषी है

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