मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

रविवार, 2 जनवरी 2011

राजखोवा की रिहाई

जिस तरह से भारत सरकार और असोम सरकार ने  उल्फा के अध्यक्ष राजखोवा की ज़मानत का विरोध नहीं करके उन्हें जेल से रिहा होने में मदद की है उससे तो यही लगता है कि उल्फा और भारत सरकार के बीच जल्दी ही सार्थक बातचीत हो सकती है. अभी तक जिस तरह से उल्फा भारत से अलग होकर स्वतंत्रता की मांग करता रहा है उसके विपरीत अब यही लगता है कि निकट भविष्य में असोम में इस समस्या का कोई उचित और सर्व मान्य हल निकल सकता है. भारत सरकार ने जिस तरह से उल्फा सहित देश में अलग अलग स्थानों पर सशस्त्र विद्रोह चलाने वाले संगठनों से यह अपील की थी कि सरकार उनकी उचित मांगों को संविधान के दायरे में मानने को तैयार है उससे तो यह लगता है कि उल्फा ने अब असोम में सरकार के साथ मिलकर शांति लाने के बारे में सोचना शुरू कर दिया है.
        उल्फा का यह विद्रोह लगभग ३० वर्ष पहले इस मांग के साथ शुरू हुआ था कि असोम के लोगों के साथ भारत सरकार उचित व्यवहार नहीं कर रही है और वह यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अपने लाभ के लिए कर रही है जिससे आम असोम के नागरिक को कोई लाभ नहीं पहुँच रहा है. इसी क्रम में बांग्लादेश और आई एस आई के सहयोग से उल्फा नेता बांग्लादेश में ही बैठकर अलगाववादी गतिविधियों को अंजाम देते रहते थे जिससे असोम में आम लोगों के लिए जीना मुश्किल हो गया था. अब जब बांग्लादेश की सरकार ने राजखोवा को गिरफ्तार कर उन्हें भारत को प्रत्यर्पित कर दिया तो इस बात की सम्भावना बनने लगी थी कि अब शायद बांग्लादेश से समर्थन न मिलने के कारण उल्फा के नेता किसी सम्मानजनक हल के लिए राज़ी हो जायेंगें. फिर भी इस मामले को पूरी सावधानी के साथ सँभालने की आवश्यकता है.
      अब जब यह समय आ गया है कि भारत सरकार और उल्फा ठीक तरह से इस संघर्ष को समाप्त कर सकें तो उल्फा के सैन्य प्रमुख परेश बरुआ किसी भी तरह की वार्ता के पक्ष में नहीं हैं. ऐसी स्थिति में उल्फा के नेतृत्व के लिए यह और भी मुश्किल हो जायेगा क्योंकि आधी अधूरी तैयारी और बात चीत के साथ इस समस्या का कोई भी समाधान संभव नहीं है. मामले में जिस तरह से धीरे धीरे विश्वास बहाली का माहौल बन रहा है उसका पूरा लाभ लिया जाना चाहिए उल्फा को भी यह समझना चाहिए कि सरकार के वार्ताकार भी उनकी बात को सरकार तक पहुँचाने के लिए तत्पर हैं. जब तक यह विश्वास और अधिक मज़बूत नहीं होता है तब तक उल्फा को भी सरकारी प्रतिष्ठानों पर किसी भी तरह के हमले से बचना होगा और सरकार को भी असोम सहित पूर्वोत्तर भारत में उल्फा के साथ अनावश्यक सख्ती से बचना होगा. जब तक परेश बरुआ इस शांति वार्ता में शामिल नहीं होते हैं तब तक इसके कोई मायने नहीं रहेंगें क्योंकि उल्फा के सैन्य प्रमुख होने के नाते वे कहीं पर भी अपने लोगों से हमले करवाकर इस वार्ता को पटरी से उतारने का काम तो कर ही सकते हैं ?  आशा है कि वे भी इस समय वक्त की नजाकत को समझते हुए कोई उचित हल के बारे में विचार करने की तरफ़ सोचेंगें. 

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