आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना विवाद में जिस श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट की प्रतीक्षा की जा रही थी उसके आने के बाद लगता है कि इस आयोग ने अपना काम बहुत अच्छे से किया है और सभी संभावित मुद्दों पर सुलह और सर्वमान्य हल के बारे में सोचने का प्रयास भी किया है. किसी भी राज्य का बंटवारा कहीं से भी बहुत आसान नहीं होता है सन २००० में बने उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के बीच अभी तक संसाधनों और कार्मिकों के बंटवारे का मसला अटका पड़ा है. जिस तरह से आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सभी संभावित पहलुओं को छुआ है उससे लगता है कि इन सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद ही कुछ कदम उठाये जाने चाहिए. समिति ने जिस तरह से ५ संभावित हल सुझाये हैं अब उन पर गंभीरता से विचार की आवश्यकता है और आन्ध्र की जनता को यह भी मान और समझ लेना चाहिए कि यह केवल एक रिपोर्ट है और इसके विरोध या समर्थन करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह केवल आम लोगों के जीवन को दुरूह बनाने का काम ही करने वाली है
यह विवाद जिस स्तर तक पहुँच चुका है उसको देखते हुए कहीं से भी यह नहीं कहा जा सकता है कि इस विवाद को आसानी से निपटाया जा सकता है. अभी इस बात की आवश्यकता है कि पूरे आन्ध्र प्रदेश के लोग सबसे पहले यह तय करें कि उन्हें इसी तरह से रहना है या फिर उनकी इच्छा अलग अलग राज्य के रूप में तेलंगाना आदि को बनाने में है. अभी तक कहीं से भी यह नहीं कहा जा सकता है कि यह बंटवारा आसानी से हो जायेगा क्योंकि हैदराबाद पर झगड़ा अवश्य ही होना है क्योंकि नया बनने वाला राज्य इसे अपनी राजधानी बनाना चाहेगा. इस स्थिति में हैदराबाद के लोगों के बीच जनमत संग्रह करकर इस बात को परखना चाहिए कि आख़िर वे किस तरह से और किस राज्य की तरफ़ जाना चाहते हैं. वैसे किसी भी तरह से इन लोगों के लिए यह निर्णय करना आसान नहीं होगा क्योंकि किसी भी निर्णय में हैदराबाद के लोगों की बात सुनी भी जाएगी इसी बात में बहुत संदेह है ?
राज्य का बंटवारा कभी भी आसान नहीं होता है पर आज तक देश में जिन राज्यों में अलग राज्य बनाए की मांग उठी है वहां पर सुशासन सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए ? अधिकतर सरकारें केवल राजधानियों से ही चलायी जाती हैं जिसके कारण भी दूर दराज़ के लोगों को यह लगने लगता अहि कि राज्य सरकार उनकी उपेक्षा कर रही है ? किसी समय में उत्तर प्रदेश में भी ६ महीने सरकार को नैनीताल से चलाया जाता था और वह प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी पर जब यह व्यवस्था रुक गयी तो पहाड़ के लोगों को लगने लगा कि लखनऊ में बैठकर उनके हितों के बारे में ठीक ढंग से नहीं सोचा जा सकता है ? बस इस तरह से कहीं न कहीं उपेक्षा होने पर किसी जन नेता द्वारा यह मांग उठाई जाने लगती है कि उन्हें भी अलग राज्य चाहिए ? तेलंगाना पर चाहे जो भी हो पर जब तक देश में सरकारें सुशासन के बारे में नहीं सोचेंगी तब तक कहीं न कहीं से इस तरह की मांगें उठती ही रहेंगी ? क्या देश के नेता इस बात के लिए तैयार हैं कि वे पूरे राज्य और देश को एक इकाई मान कर काम करें और यह देखें कि वास्तव में कहाँ पर किस तरह के विकास की आवश्यकता है ? शायद ऐसा होने पर ही अलग नए राज्यों को मांगने का क्रम कुछ धीमा हो ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
तेलंगाना बनना या न बनना अलग मुद्दा है और विकास अलग. दर-असल विकास और न्याय ये दो चीजें लोगों को मिलने लगें तो किसे पड़ी है अलग प्रदेश और छोटे प्रदेश की..
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