लगता है कि उत्तर प्रदेश की माया सरकार ने अपनी मनमानी करने की पूरी ठान ली है. बहुत समय बाद नियमित हुए स्थानीय निकाय चुनावों की पूरी प्रक्रिया को जिस तरह से प्रदेश में बदलने की कोशिश की जा रही है उससे तो इन चुनावों को करने का कोई मतलब ही नहीं रह जायेगा. ऐसा नहीं है कि जिस तरीके से चुनाव कराये जाने का प्रयास किया जा रहा है उससे कभी चुनाव नहीं हुए हों पर जब जनता की सीधी भागीदारी इन चुनावों में हो गयी है तो आख़िर अब इस पूरी प्रक्रिया को क्यों उलटने का प्रयास किया जा रहा है ? नए संशोधन के बाद अब नगर पालिकाओं और नगर निगमों में अध्यक्ष और महापौर का चुनाव अब केवल निर्वाचित सदस्य ही कर सकेंगें और जनता से यह अधिकार वापस लेने कि सिफारिश कि गयी है. जितने बड़े स्तर पर ये चुनाव होते हैं उनको देखते हुए इसमें सदस्यों द्वारा चुनाव किये जाने से धनबल और राजबल से ही इन्हें जीतने की हर कोशिश की जाएगी और इन चुनावों को करने की संवैधानिक मंशा पर ही पानी फिर जायेगा.
प्रदेश सरकार ने जिस तरह से त्रि-स्तरीय पंचायत चुनाव कराये हैं उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अब स्थानीय निकाय चुनाव में वह इसे दोहराने जा रही है. कहने को ये चुनाव लोकतंत्र की रखवाली के लिए थे और जनता को उनका हक़ देने वाले थे पर जिस तरह से संभावित प्रत्याशियों के खिलाफ़ मुक़दमें किये गए और उन्हें चुनाव लड़ने से रोकने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाये गए वे बहुत ही शर्मनाक थे. बसपा सरकार यह जानती है कि शहरी क्षेत्रों में उसका कोई जनाधार नहीं है और चुनाव के वर्ष में वह कहीं से भी यह सन्देश नहीं देना चाहती है जिसका विपक्षी यह कहकर लाभ उठा सकें कि उसका जनाधार अब सिकुड़ रहा है ? धन्य है सत्ता की ऐसी सोच जो पता नहीं क्या सोचकर सत्ता से चिपके रहना चाहती है ? जिस तरह से इन स्थानीय निकायों में बसपा फिर से सत्ता का नंगा नाच करने की फ़िराक में है उसे जनता देख ही रही है और इस बात का असली असर तब देखने को मिलेगा जब विधान सभा चुनाव होंगें. देश की जनता इन नेताओं की सोच से बहुत आगे तक सोचने की क्षमता रखती है और जनता की उसी सोच ने माया को इस कुर्सी तक पहुँचाया था.
स्थानीय निकायों में सरकार द्वारा नामित सदस्यों के पास पहले वोट देने का अधिकार नहीं होता था पर अपने को मज़बूत रखने के लिए पूर्ववर्ती सरकारों ने इन नामित सदस्यों को भी वोट देने का अधिकार दे दिया और अब माया सरकार इन नामित सदस्यों की संख्या बढ़ाकर इनके वोटों को भी अपने अध्यक्ष और महापौर चुनवाने में दुरूपयोग करने जा रही है ? आज जब देश में हर तरफ़ जनता को उसके लोकतंत्र से मिलने वाले हक़ को उस तक पहुँचाने के प्रयास किये जा रहे हैं तो वहीं प्रदेश सरकार इस तरह के अधिकारों को वापस लेने में लगी हुई है ? अगर सरकार को इस तरह की बातों का कोई भविष्य लगता है तो बिना कुछ सोचे उसे पूरी चुनावी प्रक्रिया को ही समाप्त कर पूरे सदन को ही लखनऊ से नामित कर देना चाहिए जिससे उसके मन की भी जाएगी और उसका इन पर कब्ज़ा भी हो जायेगा ? सबसे दुःख की बात तो यह है कि कोई भी सरकार इस मामले में इतनी निरंकुश कैसे हो सकती है ? संविधान ने जो अधिकार ने राज्य सरकारों को दिए हैं उनका ऐसा दुरूपयोग कहीं और देखने को नहीं मिलता है.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
मेरे अनुसार तो मुख्य और प्रधान मन्त्री भी सीधे ही चुनना चाहिये..
जवाब देंहटाएं