२६ मार्च से अपने हिंदी के सभी शार्ट वेव प्रसारण रोकने की योजना को फिलहाल बीबीसी ने पुनर्विचार के साथ पूरी तरह से बंद करने की योजना पर आंशिक अमल करने की घोषणा की है. इस वर्ष आर्थिक तंगी से जूझ रही इस विश्व व्यापी प्रसारण सेवा ने अपनी कई सेवाओं को बंद करने की सोच ली थी पर भारत से इसके नियमित श्रोताओं और अन्य संस्थाओं द्वारा इस सेवा को पूरी तरह से बंद किये जाने के फैसले पर पुनर्विचार किये जाने के आग्रह के बाद अब एक साल तक शाम के प्रसारण को चालू रखने के लिए आदेश जारी हो गए हैं. आज के समय में रेडियो के लिए अपने अस्तित्व को बचाए रखना बहुत बड़ी चुनौती है ऐसे में एक स्वतंत्र सेवा की तरह काम करने वाली यह पूरी सेवा अपने को जिंदा रख पाने के लिये संघर्षरत है. इसका पूरा तंत्र कुछ स्थानों से प्राप्त होने वाली साहत्य से ही चलाया जाता है. विडम्बना है कि सरकारों के पास दुनिया भर के हथियार खरीदने के लिए धन होता है पर ऐसी किसी सामाजिक सेवा को देने के लिए धन नहीं होता ?
हो सकता है कि आई पॉड की वर्तमान पीढ़ी बीबीसी के इस योगदान और अन्य सहयोग से परिचित न हो पर इससे इस सेवा पर कोई असर नहीं पड़ता है. देश में १९४० से ही किसी भी विश्वसीय समाचार के लिए लोग बीबीसी पर निर्भर रहा करते हैं. गाँव गाँव में चाहे कुछ मिले या न मिले पर शार्ट वेव रेडियो ज़रूर मिल जाया करते हैं और इस सेवा को सुनने के लिए लोग बड़ी उत्सुकता से चौपाल में बैठकर ख़बरों पर अपनी राय दिया करते हैं, आज भी विकास के इस युग में इस रेडियो सेवा ने अपने को जनता के बीच विश्वसनीय बनाये रखा जो कि इसके स्वरुप को और भी प्रभावी बनाता रहा है. जनवरी माह में अचानक ही आई इस खबर ने लोगों को चौंका दिया था और उनको यह लगने लगा था कि अब विश्वसनीय समाचार आख़िर कहाँ से मिला करेंगें ? फिर जो सिलसिला चला इस सेवा को बचाए रखने के लिए उसका भी होना अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है. भारत के हर कोने से बीबीसी को पत्र मिलने का जो सिलसिला चालू हुआ उसने रुकने का नाम ही नहीं लिया तभी इस सेवा के कर्ता-धर्ताओं ने शर्तों के साथ एक वर्ष तक इसको और चलाने का फैसला कर लिया.
सवाल यह नहीं है कि ये सेवा आख़िर क्यों बंद हो रही है ? सवाल यह है कि इसको बंद करने के पीछे आख़िर कौन से तत्व सक्रिय हैं ? कोई भी सेवा बिना आर्थिक मजबूती के नहीं चल सकती है फिर भी इसकी कुछ भाषाओं की सेवा को बन्द करना आख़िर किस तरह से उचित कहा जा सकता है ? आज के समय में इतनी प्रभावी और आसानी से सुलभ सेवा को ज़िंदा रखना बहुत ज़रूरी है हर काम लाभ के लिए ही नहीं किया जा सकता है ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि धीरे धीरे आर्थिक मुद्दों की बात कर इस पूरी सेवा को ही किसी द्वारा अधिग्रहीत कर लिए जाने की कोई साजिश काम तो नहीं कर रही है ? आज पूरी दुनिया में बहुत बड़े बड़े प्रसारक हैं और वे अपने कुछ लाभ के लिए इस सेवा को बंद करवाने में कोई कसर भी नहीं छोड़ना चाहेंगें ? फिर भी भारत के श्रोताओं लिए यह बहुत ही राहत की बात है कि आने वाले एक साल तक हिंदी में हम सुन सकेंगें कि ये बीबीसी है..........
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
अन्तर स्पष्ट है, हिन्दी बन्द करने का फैसला लिया गया और उर्दू सेवा चालू रखने का..
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