उत्तर प्रदेश के महराजगंज जनपद में जिस तरह से ग्राम प्रधान की हत्या के बाद १० लोगों को जिंदा जला दिया गया वैसा और कोई उदाहरण कहीं दिखाई नहीं देता है. सारे विवाद के पीछे १० एकड़ ज़मीन है जिस पर पिछले १० वर्षों से विवाद चल रहा था. इस तरह के विवाद का अंत इतना लोमहर्षक होगा इसकी कल्पना कोई भी नहीं कर सकता है. जिस तरह से एक व्यक्ति की घात लगाकर हत्या की गयी और उसके बाद ग्रामीणों ने इकठ्ठा होकर आरोपियों के घर को घेर कर आग लगायी और अन्दर से किसी को भी बाहर नहीं निकलने दिया गया वह सब अपने आप में बहुत गलत था. यह सही है जब भावनाएं उबाल पर होती हैं तो लोग विवेक को छोड़कर केवल बदला लेने के बारे में ही सोचने लगते हैं और इसकी परिणिति इस तरह से ही होती है. इस सारे मसले में यह ढूँढने की ज़रुरत होती है कि आख़िर कौन से कारण किसी को इतना वहशी बना सकते हैं ? अचानक आदमी के अन्दर से इतना गुस्सा कैसे बाहर आ जाता है कि उसे सही गलत की पहचान ही नहीं रहती ?
जिस तरह से ख़बरें आयीं उनसे तो यही लगता है कि इस पूरे मसले में पुलिस और प्रशासन की भूमिका ठीक नहीं रही. जब सभी को पता था कि दोनों पक्ष इतने वर्षों से लड़ रहे हैं और उनमें किसी भी हद तक वार करने की क्षमता है तो पुलिस को इनको पाबंद करके गाँव में सुरक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए थी. ऐसा नहीं है कि पुलिस की समझ में ऐसी बातें नहीं आती है पर जब भी पुलिस किसी एक पक्ष के साथ हो जाती है तो इस तरह का आक्रोश होता है. गुरूवार की शाम को भी पुलिस ने जाकर मामले को शांत कराने का प्रयास किया था पर शुक्रवार की घटना से यह तो स्पष्ट हो ही गया कि पुलिस के प्रयास बहुत ही उथले स्तर पर रहे होंगें क्योंकि कानून व्यवस्था को नियंत्रण में रखने का दम भरने वाली पुलिस यह भांपने में कैसे चूक गयी कि उसे पता ही नहीं चला कि विद्वेष इस स्तर पर बढ़ चुका है जो उसकी जान के लिए जंजाल होने जा रहा है. जब भी केवल अपने लाभ की बात हो तो निष्पक्षता की उम्मीद करना ही बेईमानी है.
आज पुलिस जिस तरह से संवेदना शून्य हो गयी है इसके पीछे यह भी एक कारण हो सकता है ? पुलिस केवल उन्हीं मामलों में दिलचस्पी लेना चाहती है जिसमें उसे कुछ लाभ होने वाला हो या फिर जिसके लिए उस पर नेताओं का दबाव भी हो वर्ना किसी के जीने मरने से पुलिस को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है. पहले जिस तरह से कम्युनिटी पुलिसिंग हुआ करती थी उससे बहुत सारी ऐसी समस्याओं का हल निकल आया करता था पर आज वह पूरी व्यवस्था ही ख़त्म सी हो गयी लगती है. अब भी प्रदेश में पुलिस बल की कमी देखते हुए फिर से लोगों कि समितियां बनाकर उन्हें स्थानीय समस्याओं का हल ढूँढने के लिए सक्रिय किया जाना चाहिए क्योंकि कई बार मामले कि तह तक जाने की बजाय पुलिस एक पक्ष की बात सुनकर लालच या दबाव में आकर न्याय करने में चूक जाया करती है. अब फिर से सामाजिक मूल्यों और सामाजिकता को जिंदा करने की ज़रुरत है जिससे इस तरह की घटनाओं पर रोक लगायी जा सके.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज पुलिस जिस तरह से संवेदना शून्य हो गयी है इसके पीछे यह भी एक कारण हो सकता है ? पुलिस केवल उन्हीं मामलों में दिलचस्पी लेना चाहती है जिसमें उसे कुछ लाभ होने वाला हो या फिर जिसके लिए उस पर नेताओं का दबाव भी हो वर्ना किसी के जीने मरने से पुलिस को कोई फ़र्क नहीं,बहुत ही सुन्दर तरीके से आप ने उ प की सामाजिक व्यवथा को उकेरा है ,पुलिस और प्रशासन की भूमिका को भी बहुत सही रूप में प्रस्तुत किया है .शुभकामना ,मेरे ब्लॉग कभी समाये मिले तो देखिये गा .
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