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मंगलवार, 10 मई 2011

अयोध्या मामला फिर से

           सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या विवाद के सन्दर्भ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के उस आदेश पर रोक लगा दी है जिसके अनुसार यह भूमि ३ भागों में बांटने के लिए कहा गया था. वैसे भी लखनऊ पीठ ने इस मामले को सुनने के बाद एक बात पर सहमति दिखाई थी कि जिस स्थान पर मूर्तियाँ स्थापित हैं वह स्थान हिन्दुओं को दे दिया जाये और इसके अलावा बची हुई भूमि को तीन भागों में सभी पक्षों में बाँट देना चाहिए. उस समय के बनाये गए तनाव को देखते हुए इस तरह के फैसले से सभी ने राहत की सांस ली थी पर यह फैसला इस विवाद को समाप्त करने में सफल नहीं हो सकता है इसलिए सभी पक्ष अपने अपने दावे लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचे हैं. जिसमें बार कई अन्य लोग और संस्थाएं भी हैं जिन्हें लखनऊ पीठ के इस फ़ैसले पर आपत्ति है.  वैसे भी लक्नाऊ पीठ काफैसला बहुतमत के आधार पर था और उसका अनुपालन कराना अपने आप में बहुत बड़ी चुनौती था.
    माननीय न्यायालय ने लखनऊ पीठ के फ़ैसले पर रोक लगाते हुए विवादित भूमि पर १९९३ की स्थिति बनाये रखें का आदेश दिया है और साथ ही इससे जुड़ी ६७ एकड़ भूमि पर किसी भी तरह की धार्मिक गतिविधियों पर रोक लगा दी है पर साथ ही यह भी कहा है कि विराजमान रामलला की पूजा अर्चना उसी तरह से होती रहेगी. कोर्ट ने लखनऊ पीठ के इस फ़ैसले को अजीब बताते हुए कहा है कि किसी भी पक्ष ने भूमिके बंटवारे की बात नहीं की थी फिर भी बहुमत से आये फ़ैसले में इस भूमि को तीन भागों में बांटने का आदेश दिया गया जो कि अपने आप में एक नया आयाम है. इस तरह के फ़ैसले को अमल कररना भी संभव नहीं है जिस कारण से सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाओं का अम्बार लग गया है. और आज के समय में इस तरह के किसी भी मसले पर स्पष्ट आदेश के बिना उस पर अमल नहीं हो सकता है.
  अब सारा मसला एक बार फिर से सर्वोच्च न्यायालय के पास फिर से पहुंचा हुआ है फिर भी यह आस्था से जुड़ा मामला है और इसका निर्णय सबूतों के आधार पर नहीं किया जा सकता है फिर भी सभी पक्ष केवल यथास्थिति बनाये रखने के लिए ही सर्वोच्च न्यायालय गए हुए हैं. इस मामले में किसी भी कोर्ट का फैसला अंतिम तो हो सकता है पर वह सर्वमान्य भी हो यह आवश्यक नहीं है. फिर भी कभी न कभी इस पूरे मसले को आपसी बात चीत से ही निपटाना होगा क्योंकि अभी इस मामले में उतनी समझ देश में विकसित नहीं हो पाई है जिससे दोनों पक्ष किसी सर्वमान्य हल तक पहुँच पायें और कोई भी सरकार इस मसले में हाथ नहीं डालना चाहती है क्योंकि उसके सक्रिय होने से इस मसले में राजनैतिक पार्टियों का दखल जो अपने आप ही समाप्त हो गया है वह फिर से सामने आ जायेगा जिससे कोई और लाभ तो नहीं होना है केवल समाजी विद्वेष ही बढ़ना है. वैसे भी १९९१ के मुकाबले देश में अब अच्छी समझ विकसित हो चुकी है और हो सकता है कि आने वाले समय में और अच्छी समझ से यह पूरा मामला आसानी से सुलझ जाये.         
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