दिल्ली पुलिस ने जिस तरह से रात को अचानक ही पहुँच कर बाबा रामदेव के अनशन को बल पूर्वक ख़त्म करा दिया उसकी शायद आवश्यकता नहीं थी फिर भी जिस तरह से बाबा अपनी नयी नयी मांगों से सरकार हर समय समझौते के बिन्दुओं तक पहुँचने से रोक रहे थे उस समय दिल्ली में और अफ़रा तफ़री फैलने से रोकने के लिए सरकार की इस कार्यवाही को पूरी तरह से ग़लत भी नहीं कहा जा सकता है. देश में पुलिस के चरित्र को देखते हुए जिस तरह से यह अनशन ख़त्म कराया गया उसमें कुछ भी नया नहीं है ? बाबा के अपने समर्थक हैं और जिस तरह से उनके वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने देश के टीवी चैनलों के सामने बाबा की हत्या किये जाने की आशंका को बार बार दोहराया वह बिलकुल गलत था. ज़िम्मेदार लोग आख़िर किस तरह से इस तरह की बातें कर सकते है जबकि उन पर इस बात का दायित्व है कि वे बाबा के अनुयायियों को सही जानकारी देते पर उसके स्थान पर उन्होंने केवल सनसनी फ़ैलाने का काम किया. आज के युग में क्या सरकार और क्या बाबा के लिए कुछ भी छिपाना इतना आसान है कि वे चाहे कुछ भी करें और वह लोगों की नज़रों से बचा रह सके ?
जिस तरह से बाबा ने भी अपने और सरकार के बीच में हुए समझौते को मानने से मना कर दिया और नयी मांगें रखीं उनके बाद सरकार उनसे बात नहीं करना चाहती थी और जब सरकार के पास बात करने का कोई मुद्दा ही नहीं बचा तो उसने इस प्रदर्शन को जबरन ख़त्म कराने की कोशिश की. आखिर क्यों बाबा ने पहले जब इस बात पर सहमति दे दी थी तो फिर उसे मानने से क्यों मना कर दिया ? यह सब बातें इस तरफ तो अवश्य ही इशारा करती हैं कि सरकार और बाबा के बीच समझौता होने के बाद भी कुछ ज़रूर हुआ है जिससे बाबा का मन बदल गया और वे अधिक मांगों के साथ सामने आ गए. बाबा ने जब सरकार को वचन दिया था तो उन्हें उस पर टिकना चाहिए था जिससे आगे वे फिर से अनशन कर सकते और अपनी मांगों को दोबारा से सरकार के सामने रख सकते थे. भारत सरकार ने जिस संजीदगी से पूरे ५ दिनों तक बाबा की हर बात सुनी वह बिलकुल उचित बात थी पर उस बात पर भी लोगों ने हल्ला मचाया कि सरकार ने बाब के सामने घुटने टेक दिए हैं. सम्मान देने की तुलना भी लोगों ने समर्पण से की फिर भी सरकार ने अपनी कोशिशें जारी रखी.
पहली बात तो स्पष्ट थी कि बाबा के स्वभाव को देखते हुए वे आसानी से रामलीला मैदान से हटने वाले नहीं थे सरकार ने इसलिए ही बल प्रयोग से उन्हें हटाने की कोशिश की. पुलिस के आने पर बाबा आराम से मंच से अपने समर्थकों से शांत रहने की अपील भी कर सकते थे पर उसके स्थान पर वहां छापामार युद्ध की शुरुआत कर दी गयी. अगर बाबा शांति पूर्वक अपनी गिरफ़्तारी दे देते तो शायद उनके समर्थकों में और जोश आता और सरकार पर भी अधिक दबाव बनता पर समर्थकों की तरफ से पत्थरबाज़ी की घटना ने पुलिस को अपना चरित्र दिखाने को मजबूर कर दिया. फिलहाल जिस तरह से बाबा ने बातचीत के माहौल को संघर्ष की तरफ धकेला और सरकार ने भी संयम का परिचय नहीं दिया वह पूरी तरह से निंदनीय है. इस मामले में दोनों पक्ष ही बराबर के दोषी हैं और अब मैदान बराबर का हो चुका है इसलिए किसी को भी सही या ग़लत ठहराने से कुछ भी नहीं हो सकता है. बाबा ने सरकार पर दबाव बनाकर जो कुछ हासिल किया था वह सब एक झटके में गँवा दिया है और अब सरकार से फिर से बात शुरू होने में कितना समय लगेगा और सरकार फिर से बात करने में कितनी दिलचस्पी लेगी यह सब समय ही बताएगा.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
डॉ. आशुतोष जी , मै आपके ब्लॉग का नियमीत पाठक हूँ और आपके ब्लॉग की एक एक लाइन काफी गहरी और सच्ची होती है. पर आज आपने कहा की कारवाही पूरी तहर गलत नहीं थी ये पढ़ कर मुझे अच्छा नहीं लगा. यदि ये कारवाही आरक्षण मांगने वाले जो १५-२० दिनों तक ट्रेन और बस को रोके रखते है उन के लिए होती तो मुझे अफ़सोस नहीं होता .लेकिन उन पर तो सरकार के वोट होते है. इस कारवाही मै हमारे किसी को चोट नहीं लगी तो एसा लगा की कुछ नहीं हुआ लेकिन जो हुआ ह वो काफी दर्द देने वाला है . ये कारवाही उन पर हुई जो देश के लिए कुछ करना चाहते है. क्यों कभी अन्ना हजारे और रामदेव को लड़ना पद रहा है क्या सरकार की कोई जिम्मदारी नहीं है. और देखा जाये तो मुद्दा भी क्या था भ्रस्टाचार. लेकिन ऊपर से निचे और पक्ष से लेकर विपक्ष तक सब भ्रस्टाचारी है तो ये क्यों चाहेगे की एसा कानून आये जिस से इन पर अंकुश लगे. मुझे तो भारत सरकार से इसी आशा नहीं थी और मुझे कल काफी दुःख हुआ. हो सकता है मेरी सोच आप जितनी ऊँची न हो पर मुझे जो लगा मैंने कह दिया.
जवाब देंहटाएंउत्कर्ष चौधरी
उत्कर्ष जी जितना आपको कष्ट हुआ उतना ही हर भारतीय को हुआ पर आज जब सरकार ने यह कार्यवाही की है तो उसको सभी कोस रहे हैं पर किसी ने सरकार का पक्ष सोचने की कोशिश की है ? मेरे विचार से कहीं न कहीं यह आन्दोलन अपनी राह भटक गया आर बाबा जी को कुछ लोगों ने यह समझा दिया की आपको पीछे हटने की ज़रुरत नहीं है बस वहीं से सब गड़बड़ हो गयी. अगर बाबा जी ने संत धर्म का पालन किया होता तो शायद देश को राजनैतिक कुचक्र में फंसकर यह दिन नहीं देखने पड़ते ? क्या सरकार ने बाबा जी के शब्दों में उनकी ९९ % बातें नहीं मान ली थीं ? फिर क्या कारण था की बाबा जी ने उस समझौते से पीछे हटने का फैसला ले लिया ? जब तक बाबा जी संत थे तब तक सरकार ने उनका सम्मान किया पर जब उन्होंने राजनीतिकों की तरह से बोलना शुरू कर दिया तो सरकार ने उनसे भी किसी राजनैतिक विरोधी की तरह ही निपट लिया ? कुल मिलाकर इस सारे प्रकरण में देश का ही अहित हुआ मैंने आज इसी विषय पर लिखा है. मैं देश का समर्थक हूँ किसी सरकार या बाबा जी का नहीं और मेरे विचार से दोनों पक्षों के विचार रखना यहाँ पर महत्वपूर्ण था... आपके अमूल्य विचारों के लिए धन्यवाद... स्नेह बनाये रखिये
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