आज के समय में देश में किसी भी अच्छे आन्दोलन को किसी अन्य दिशा में मोड़कर अपने हितों को साधने का काम आज भी पुराने ढर्रे पर ही चल रहा है. जिस तरह से रामलीला मैदान में बाबा रामदेव ने अपने आन्दोलन को शुरू किया था तो उन्हें भी यह आशा नहीं थी कि यह आन्दोलन इस दिशा में चला जायेगा ? यह बिलकुल सही है कि बाबा ने जिन मुद्दों को उठाया है वे देश के भविष्य से जुड़े हुए हैं पर उन्होंने जिस तरह से अपने आन्दोलन को दूसरे के हाथों में जाने दिया बस वहीं से सारी बात की दिशा ही बदल गयी. बाबा का नाम पूरे विश्व में योग को फ़ैलाने और जन जन तक उसके लाभ पहुँचाने के लिए सदैव ही याद किया जायेगा पर उन्होंने इतने बड़े मामले में जब हाथ डाला था तो उन्हें इसके परिणामों पर भी विचार कर लेना चाहिए था. हरिद्वार की योगपीठ के वे सर्वे सर्वा हैं और वहां से जुड़ी किसी भी बात के लिए वे त्वरित निर्णय करने के लिए स्वतंत्र हैं पर कोई भी सरकार इतनी जल्दी कोई भी निर्णय नहीं ले सकती है क्योंकि उसे समाज और देश के हर वर्ग के बारे में सोचने के बाद उसे संसद में पारित करवाने की ज़िम्मेदारी भी उठानी पड़ती है. बाबा को भी अपना ध्यान केवल आन्दोलन पर रखना चाहिए जबकि वे भी अन्य दलों के नेताओं की तरह अब सोनिया पर व्यक्तिगत रूप से हमले करने में नहीं चूक रहे हैं ?
यह सही है कि बाबा का अपना एक विशिष्ट स्थान है और वहां से उन्हें कोई भी नहीं उठा सकता है पर उन्होंने एक सीमा के बाद अपने योग गुरु वाले पद को खुद ही छोड़ दिया और वे राजनैतिक लोगों की भाषा बोलने लगे जिससे उनके लिए और समस्याएं खड़ी होती चली गयी. बाबा की बातों पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि खुद बाबा ने भी यह कहा कि सरकार ने उनकी ९९% बातें मान ली हैं पर पता नहीं क्यों बाबा ने सरकार को १% के लिया भी नहीं छोड़ा और जिसकी परणीती इस रूप में हुई कि बाबा ने अपने कौशल से जो कुछ सरकार से मनवा लिया था अब उसके लिए फिर से पूरे प्रयास करने होंगें. असल में सरकार की शुरू की रणनीति को देखते हुए बाबा और उनके सहयोगियों को यह लगने लगा था कि अब सरकार दबाव में है और उससे कुछ भी मनवाया जा सकता है पर यहीं बाबा से रणनीतिक चूक हुई और बना बनाया खेल बिगड़ गया. सरकार ने बाबा से अगर यह पूछ लिया कि वे सहमति के अनुसार अनशन क्यों नहीं समाप्त कर रहे हैं तो इसमें क्या ग़लत था ?
सरकार ने जिस तरह से बल प्रयोग किया उसकी भी आवश्यकता नहीं थी पर जब कोई अपने को कानून से ऊपर समझने लगे तो उसके लिए किसी भी सरकार के पास और क्या चारा बचता है ? पुलिस के चरित्र को देखते हुए यह समझा जा सकता है कि वहां पर पुलिस ने केवल उतने ही बल का प्रयोग किया जो आवश्यक था वरना पुलिस तो ५०० प्रदर्शनकारियों में से २५० को घायल कर दिया करती है ? इस पुलिस कार्यवाही का भी बाबा ने जिस तरह से राजनैतिक लाभ उठाने का प्रयास किया वह भी समझ में आने वाला नहीं है क्योंकि पुलिस के आने पर वे संतों की तरह से आसानी से अपने समर्थकों से शांत रहने की अपील करके हरिद्वार जा सकते थे पर शायद तब उनकी राजनैतिक आकांक्षाएं अधूरी ही रह जातीं ? बाबा को आज भी यह देखना चाहिए कि आज कौन कौन उनके समर्थन में खड़ा है ? जो साथ आने का ढोंग कर रहे हैं उनके पास भी करने के लिए क्या बचा है ? और उनके कौन से स्वार्थ इस समर्थन से पूरे हो रहे हैं ? अच्छा यह होगा कि किन्हीं तटस्थ लोगों को बीच में डाल कर सहमति के उन बिन्दुओं को मानते हुए सरकार और बाबा असली मुद्दे पर ध्यान केन्द्रित करके देश के हित में काम करें.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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