मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

स्थायी समिति और राजनीति

संसद की स्थायी समिति से कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी के इस्तीफ़ा देने के बाद से अब अन्य दलों पर भी इसमें अपने सदस्यों के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया है कि वे भी इस समिति में बेदाग़ लोगों को ही रखें . यह अच्छा ही हुआ कि मनीष तिवारी ने ख़ुद ही अपने को अलग कर लिया वरना इसकी बैठक होने के साथ उनके अन्ना हजारे के बारे में दिए गए विवादस्पद बयान के लिए भी बाद में उनके वहां पर होने पर भी सवाल उठाये जाते ? अब उन्होंने यह क़दम अपने आप उठाया या फिर पार्टी के कहने पर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि मज़बूत लोकपाल के लिए अब देश को जो भी कुर्बानियां चाहिए हैं वे देनी ही होंगी. आम तौर पर इन समितियों के बारे में जनता को कुछ भी पता नहीं होता है पर जा भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक कड़ा लोकपाल बिल बनाया जा रहा है तो उसमें लालू और अमर सिंह जैसे सदस्यों के होने का क्या मतलब है ? फिर भी जब इस स्थायी समिति के बारे में जनता जान ही गयी है तो अब इस बात पर भी विचार किये जाने की आवश्यकता है कि इस तरह के दाग़ी लोगों के स्थायी समिति में होने से जनता में क्या सन्देश जाता है ?
   जिस तरह से संसदीय काम किये जाते हैं उसमें सभी दलों को व्यापक प्रतिनिधित्व भी दिए जाने की परंपरा रही है पर संसद की गरिमा बचाने की ज़िम्मेदारी भी अब सांसदों पर ही है क्योंकि भ्रष्टाचार के विरुद्ध कानून बनाने का काम अब लालू देखेंगें जिन पर पता नहीं कितने केस चल रहे हैं यह देश की जनता के लिए अब बर्दाश्त होने वाली बात तो नहीं है ? अब समय है कि संसद को अपनी विश्वसनीयता बचाए रखने के लिए इन लोगों को इन समितियों से बाहर करने का रास्ता दिखाना ही होगा क्योंकि जो ख़ुद ही आरोपी है उससे कानून कैसे बनवाया जा सकता है ? हालांकि लालू और अमर के कुछ भी कहने और करने से अब कुछ भी नहीं होने वाला है क्योंकि इस स्थायी समिति की हर बात पर अब सिविल सोसायटी की कड़ी नज़र है और सरकार किसी भी स्तर पर इन लोगों के कारण कोई नए विवाद नहीं होने देना चाहेगी. जिस व्यक्ति में कोई पूर्वाग्रह हो तो वह किसी भी तरह से निष्पक्ष नहीं हो सकता है यह प्रकृति का नियम है तो फिर कोई नेता आख़िर क्यों चाहेगा कि वह ख़ुद ही अपने लिए बर्बादी का रास्ता क्यों बनाये.  
   यह भी सही है कि किसी समय देश में बहुत अधिक राजनैतिक शुचिता हुआ करती थी तब ख़ुद ही लोग किसी विवाद के होने पर अपने को फैसले लेने वाली समितियों से दूर कर लिया करते थे पर आज वह स्थिति नहीं बची है जिससे कुछ नेता गण बेशर्मी से अपनी बातों को रखते रहते हैं. अब देश की जनता संसद पर भी नज़र रख रही है क्योंकि देश की सर्वोच्च संसद को बनाने वाली महा जन संसद अब मूर्छा से जग चुकी है और अब सारा दबाव संसद पर है कि वह और अपनी सरकार जनता की भावनाओं का किस तरह से सम्मान करती है ? यह सोचना भी संसद कि बड़ी भूल होगी कि चुनाव तक सब ठीक हो जायेगा क्योंकि इस बार जनता ने यह तय कर लिया है कि किसी भी स्थिति में अब कुछ सांसदों को अपनी मर्ज़ी नहीं चलाने दी जाएगी. जब पूरे देश से सांसद चुन कर जाते हैं तो सभी को अपनी राय रखनी चाहिए और इसके लिए एक तरह से सदन की कार्यवाही को चलाने वाले नियमों में फेर बदल भी किया जाना चाहिए. अब केवल पुराने नियमों का हवाला देने से काम नहीं चलने वाला है क्योंकि समय के साथ देश की आवश्यकताएं और जागरूकता में परिवर्तन आ रहा है.     

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2 टिप्‍पणियां:

  1. अब जनता को इन समितियों के बारे में पता लगने लगा है और कानून कैसे बनते हैं इसकी जानकारी भी। तो ऐसे में जनता की निगाहों का सामना तो करना ही पड़ेगा। यही असली लोकतंत्र है।

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  2. दिया तुम जलाओ हंडा हम जलाएं
    मिलकर दुनिया को हम जगमगाएं

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