मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 5 सितंबर 2011

दलितों के राज में दलित....

पूरी दुनिया में दलितों स्थिति को बदलने के बारे में में बड़े बड़े दावे करने वाली बसपा की उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार के होते हुए भी किस तरह से असफल होती जा रही है और निरंतर दलितों और वंचितों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएँ बढती जा रहीं हैं जो दावों और वास्तविकता में अंतर को स्पष्ट करती है. ताज़ा मामले में बाराबंकी जिले में बसपा के स्थानीय नेता ने एक तरफ़ पंचायत बुलाई और फिर अपने को कानून से भी ऊपर मानते हुए दलित किशोरी की भरी सभा में पिटाई की जिससे क्षुब्ध होकर किशोरी ने आत्मदाह करने की कोशिश की जिसमें वह ५०% जल गयी और अब लखनऊ में भर्ती है. यहाँ पर सवाल यह कानून व्यवस्था का नहीं वरन दबंगई का है की किस तरह से कुछ छुटभैये नेता लोग लोगों को बुला लेते हैं और अपनी मन पसंद बात उन पर थोपने का प्रयास करते रहते हैं ? क्या बसपा ने अपनी पार्टी के लोगों को इस तरह से अवैध पंचायत लगाने का अधिकार दे रखा है ? अगर नहीं तो उसे स्पष्ट रूप से इस तरह की किसी भी घटना से सख्ती से निपटना चाहिए.
       लखनऊ में बैठकर बड़े बड़े दावे करने और ज़मीनी हकीकत को समझ पाने में बहुत बड़ा अंतर होता है यह बात पिछले साढ़े चार वर्षों से सरकार चला रही बसपा को अभी तक नहीं मालूम हो पाई है. किस भी पार्टी को निजी संपत्ति की तरह तो चलाया जा सकता है पर जब बात पूरे समाज की होती है तो उसमें इस तरह का पूर्वाग्रह नहीं चल पाता है. अब इस पूरे मामले में नेतागिरी शुरू हो जाएगी चूंकि मामले बाराबंकी का है और कांग्रेस के पी एल पूनिया वहां से सांसद हैं तो यह मामला बहुत दूर तक खिंचने के आसार भी बनते जा रहे हैं. प्रदेश सरकार अपने चहेते अधिकारियों को कुर्सियों पर बैठाने के चक्कर में किस तरह से काम करती है यह बात इससे ही स्पष्ट हो जाती है की आज देश के सबसे बड़े राज्य के पास पूर्ण कालिक पुलिस प्रमुख भी नहीं है ? आख़िर क्या कारण है की प्रदेश सरकार सामान्य प्रशासन को इस तरह से चलाना पसंद करती है जैसे प्रदेश उसकी निजी संपत्ति हो ? जब पूरे प्रदेश में इतने बड़े फैसले भी रोज़मर्रा के आधार पर लिए जा रहे हों तो आख़िर कौन सा काम ठीक तरह से हो सकता है ? 
  कानून व्यवस्था के बारे में कोरी बातें करने में इस सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ रखी है पर जब आम लोगों से जुड़ी किसी भी बात पर ध्यान देने की ज़रुरत होती है तब वहां पर निर्णय लेने में ही महीने लग जाते हैं जिससे पूरे प्रशासन पर ही असर पड़ता है. इस बात का सबसे बुरा असर सामान्य प्रशासन पर पड़ता है क्योंकि कोई भी कार्यवाहक व्यक्ति बड़े निर्णय करने की स्थिति में नहीं होता है जिससे कानून व्यवस्था की स्थिति हमेशा ही दांव पर रहती है. अभी शनिवार को जिस तरह से लखीमपुर के मोहम्मदी में लेखपालों ने तहसील परिसर में ही वकीलों पर अंधाधुंध गोलियां चलायीं उससे यही पता लगता है की सरकार और अधिकारी किस तरह से काम करते हैं ४ दिनों से धरने पर बैठे लेखपालों की बातों पर अगर तहसील प्रशासन ने ध्यान दिया होता तो स्थिति इतनी ख़राब नहीं होती ? पर जब प्रशासन भी केवल सरकार के मन की बात करने में ही लगा हुआ है तो वह कहीं पर भी निष्पक्ष कैसे हो सकता है ? इस तरह की घटनाएँ रोज़ ही पूरे प्रदेश में होती रहती हैं और उनमें से कुछ ही सबके सामने आ पाती हैं. चुनावी वर्ष होने के बाद भी सरकार का इस तरह के मामलों में ऐसे काम करना समझ से परे है और फिलहाल जनता अपनी समस्याओं से जूझ रही है.     

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1 टिप्पणी:

  1. कोई समाज चाहे दलित हो,स्वर्ण हो,अल्पसंख्यक हो जब अपने आपको जाति या धर्म के आधार पर वोट बैंक बना देता है तो ऐसे ही नेता या समाज के ठेकेदार उनकी जातिय भावनाओं का दोहन अपने फायदे के लिए करेंगे ही|
    वोट बैंक में तब्दील होने वाले समाज का भला कोई नेता नहीं करता यही हालात दलितों की है क्योंकि उन्होंने वोट उसे ही देना है जो दलित है बेशक वो उनके कार्य करे या नहीं|

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