मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 17 सितंबर 2011

यूपी में चुनावी आहट

आख़िरकार यूपी में वह समय आ ही गया जिसके बाद किसी भी प्रदेश में पूरी प्रशासनिक व्यवस्था चुनाव आयोग के सीधे नियंत्रण में आ ही जाया करती है. जैसा कि हमेशा से ही होता आता है कि चुनाव आयोग की सख्ती लागू होने से पहले ही सत्ताधारी दल अपने चहेते अधिकारियों को मनपसंद जगहों पर तैनात करने की नौटंकी शुरू कर देते हैं क्योंकि चुनाव आयोग के दख़ल के शुरू हो जाने के बाद किसी भी अधिकारी का तबादला इतना आसान नहीं रह जाया करता है और जिस तरह से पिछले दो दशकों में चुनाव आयोग का प्रभाव और डंडा चलने लगा है उससे नेताओं में बहुत बेचैनी रहने लगी है. प्रदेश में जिस तरह रोज़ ही बड़े अधिकारियों का आनन फानन में पहले तबादला किया जाता है और फिर उसे संशोधित भी किया जाता है उससे तो यही लगता है कि राज्य सरकार कुछ अधिक ही मनपसंद अधिकारियों को मनमाफ़िक कुर्सियों पर बैठना चाह रही है पर उसे इस बात का कोई अंदाज़ा नहीं है कि कौन उसका है और कौन नहीं तभी रोज़ ही नयी नयी सूचियाँ जारी की जा रही हैं जिससे सामान्य प्रशासनिक काम काज में भी बाधा पहुँच रही है.
   विपक्ष में रहकर नैतिकता की बड़ी बड़ी डींगें हांकने वाले नेता यह भूल जाते हैं कि आख़िर में उन्हें भी चुनाव के बाद सत्ता मिलने पर भूलने की बीमारी कैसे लग जाती है ? आज देश में सत्ता का एक स्थायी चरित्र बन चुका है और सत्ता में कौन है इस बात से कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं पड़ता है जिससे प्रशासनिक स्तर पर कुछ भी बदलाव दिखाई नहीं देते हैं कम से कम यूपी में तो पिछले काफी समय से यह नहीं कहा जा सकता है कि कुछ भी बदला है ? पूरे देश में जिस तरह से प्रशासनिक मशीनरी का दुरूपयोग करने की परंपरा बनती चली जा रही है और प्रदेश में जिस तरह से बसपा ने प्रशासन को सत्ता का चस्का लगवाया है उससे तो यही लगता है कि अगले चुनाव के बाद प्रदेश में विधायिका और प्रशासनिक स्तर पर सब कुछ बहुत सामान्य नहीं रहने वाला है. अधिकारियों को जिस तरह से अपने कामों के लिए इस्तेमाल किया गया उसका दूसरा उदाहरण कहीं और नहीं मिलेगा इस कारण से प्रदेश में चाटुकार अधिकारियों ने पदों पर बैठकर अपनी अक्षमता के कारण बहुत सारी प्रशासनिक समस्याएं भी खड़ी की हैं जिनको प्रदेश और यहाँ की जनता भुगत रही है.
  सवाल यह है कि आख़िर इस तरह से प्रशासनिक दुरूपयोग को रोकने के लिए जनता कहाँ और किससे शिकायत करे और कौन उसकी सुनेगा ? जब नेताओं और अधिकारियों के सुर ताल मिल जाते हैं तो जनता के धन को लूटने के नए नए तरीके भी इन लोगों द्वारा निकल लिए जाते हैं ? चुनाव आयोग जिस तरह से सख्ती करके उसी तंत्र से पूरी व्यवस्था करवा लेता है पर हमारे चुने हुए नेता नहीं करवा पाते हैं क्योंकि उन्हें अपनी जेबें भी भरनी होती हैं जिससे राज्य या देश को वे गड्ढे में डालने से भी नहीं चूकते हैं. क्यों नहीं देश में कुछ ऐसा भी होना चाहिए जो इस तरह से केवल एक पक्षीय काम करने वाले अधिकारियों के खिलाफ़ भी कुछ कर सके ? पर शायद इस पूरे मामले में नेताओं को बहुत कष्ट होने वाला है इसलिए ऐसा कुछ भी तंत्र देश में विकसित ही नहीं हो पायेगा ? जिस तरह से पहले से ही देश में बहुत सारे कानून बने हुए हैं उनके चलते आज तक किसी को भी सज़ा या चेतावनी तक नहीं दी गयी है तो नए कानून से भी क्या होने वाला है जब तक नेताओं के चरित्र और चिंतन में ही सुधार नहीं होगा.           

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