मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

ग़रीबी की परिभाषा और ग़रीब

        ग़रीबी के लिए नयी सीमा निर्धारित करने के एक हलफ़नामे ने योजना आयोग के लिए रोज़ ही नयी समस्या पैदा की हैं अब विदेश दौरे से लौटने के बाद आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने इस मसले पर मीडिया के सामने अपनी बात और स्पष्टीकरण रखने की बात कही हैं. हो सकता है कि आज योजना आयोग ने कुछ विचार करने के बाद या फिर कहीं से जुटाए गए आंकड़ों के बाद यह निष्कर्ष निकाला हो क्योंकि आज भी देश में बहुत सारे लोग इससे कम पर भी जीवन का निर्वहन कर रहे हैं. यह सही है कि योजना आयोग को निम्नतम स्तर तय करने से पहले पूरी वास्तविकता का अध्ययन करना चाहिए था और जहाँ पर बैठकर पूरे देश के लिए योजनायें बनायीं जाती हों उसके बारे में ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि उन्होंने बिना कुछ सोचे समझे ही यह सीमा बताई होगी. कुछ लोगों के अतिउत्साह या फिर वास्तविकता पर आधारित आंकड़ों से यह आया है यह तो अहलूवालिया के वक्तव्य के बाद ही पता चल पायेगा.
        देश को आज आवश्यकता इन नयी नयी सीमाओं की नहीं वरन दिल्ली से बनने वाली नयी योजनाओं के निचले स्तर तक पहुँचाने की है जब भी इस तरह की बातें होती हैं तो कहीं न कहीं से वास्तविक मुद्दा पीछे छूट जाया करता है और हमारे देश के नेताओं की यह पुरानी आदत रही है कि आवश्यकता पड़ने पर वे किस तरह से दूसरों को नीचा दिखाने के लिए किसी भी हद तक गिर जाने में भी संकोच नहीं करते हैं. गरीबों से जुड़ी हुई किसी भी बात के लिए कहीं से भी इस तरह से राजनीति करने की कोई आवश्यकता नहीं है फिर भी इस मुद्दे पर ३२ रूपये गरीब की समस्या से आगे निकल गए ? आज देश को एक बड़े परिवर्तन की आवश्यकता है जिसमें देश के विकास से जुड़े बहुत सारे मुद्दों पर एक राष्ट्रीय नीति बनाये जाने की आवश्यकता है जिस पर अमल करने के लिए सभी राजनैतिक दल बाध्य हों और ऐसा न करने पर उन दलों कीमयता भी समाप्त करने का प्रावधान कानून में होना चाहिए क्योंकि देश के संसाधनों की चाभी हाथ में आने पर ये नेता अपने दल या वर्ग पर जिस तरह से पैसे बर्बाद करने का खेल शुरू कर देते हैं उससे देश का ही नुकसान हुआ करता है.
     आज भी देश में सार्वजनिक परिवहन, सड़क, शिक्षा, ऊर्जा,  सुरक्षा जैसी मूलभूत समस्याओं के लिए कोई पक्की कार्ययोजना नहीं है जो भी सरकार आती है अपनी सुविधाओं के अनुसार योजनायें बनती है और अगली सरकार उन्हें डिब्बे में फेंकने में बिलकुल भी नहीं हिचकती है. क्या किसी दल की सरकार बन जाने से ही देश की समस्याएं बदल जाती हैं या फिर उन समस्याओं का समाधान निकल आता है ? क्यों हर दल अपने नाम से कुछ करना चाहता है ? क्यों नहीं देश के लिए २० वर्षों की एक दीर्घकालिक नीति बनायीं जाती है और उस पर ठीक ढंग से अमल न कर पाने वाले नेताओं के लिए कोई कठोर दंड क्यों नहीं निर्धारित किया जाता है ? देश में राजनीति करने वाले मुद्दों की कभी भी कमी नहीं रही है जिस कारण से नेताओं की दुकानें हमेशा चलती रहेंगीं पर देश के विकास से जुड़ी किसी भी बात पर इतनी राजनीति करने की क्या ज़रुरत है ? अब भी समय है कि नेता चेत जाएँ वरना जनता के हाथ में नियंत्रण आ जाने से इनके लिए जवाब देना मुश्किल होने वाला है.        

मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

1 टिप्पणी: