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सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

उत्तर प्रदेश में चुनावी नौटंकी

देश के सबसे ज़्यादा आबादी वाले उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष होने वाले विधान सभा चुनावों के लिए जिस तरह से राजनैतिक दलों ने अपनी कमर कसनी शुरू कर दी है उससे यही लगता है की दौड़ में होने न होने के बाद भी सभी दल अपने कार्यकर्ताओं में जोश भरने का काम करने में लगे हुए हैं. इसी क्रम में जहाँ समाजवादी पार्टी के साथ भाजपा भी यात्रायें करने पर जोर दे रही है तो वहीं कुछ अन्य दल अपने काम को बनाने के लिए कार्यकर्ताओं के सम्मलेन बुलाने में लगे हुए हैं. अभी तक जिस तरह से माया सरकार का काम रहा है उसे देखते हुए इसके अगले चुनावों में फिर से सत्ता में आने की संभावनाएं बहुत कम हो गयी हैं फिर भी मायावती अपने बिखरते दलित वोटों को सँभालने के लिए फिर से राज्य भर के दौरे पर निकली हुई हैं. पिछली बार की तरह उनका भाईचारा काम नहीं आने वाला है जिससे बसपा फिर से अपने दलित वोटों और स्थानीय समीकरणों पर ही दांव लगा रही है जो की कुछ हद तक निराशा के कारण दुसरे दलों की तरफ देखने लगे हैं..
    भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ चलाये जा रहे विभिन्न आन्दोलनों से निपटने की कांग्रेस की शैली ने भी उसकी संभावनाओं को कुछ हद तक क्षीण कर दिया है फिर भी आज के समय में वह बहुत सारी जगहों पर बड़े उलटफेर करने का दम रखती है आज भी कांग्रेस के पास कार्यकर्ताओं की कमी है जिसके चलते वह अपने उन नए समर्थक वोटों को अपने पक्ष में डलवाने में सफल नहीं हो पा रही है पिछले लोकसभा चुनावों की तरह इस बार भी उसकी तैयारियां समय से पीछे चल रही हैं. प्रदेश में मुसलमानों के बीच अपनी पैठ बनाने में सफल होनेके बाद पीस पार्टी ने जिस तरह से विभिन्न दलों से भागकर आने वाले बाहुबलियों को शरण देना शुरू किया है वह उसकी बढ़ती हुई लोकप्रियता के लिए बड़ी चुनौती बनने वाला है. पीस पार्टी जिस तरह से आगे बढ़ रही है उससे वह प्रदेश के समीकरणों पर असर अवश्य ही डालने वाली है जिसका नुकसान मुसलमान वोटों पर निर्भर रहने वाले नेताओं को चुकाना ही पड़ेगा और हो सकता है की कुछ स्थानीय समीकरणों के कारण भाजपा कुछ सीटों पर लाभ पा जाये. 
   प्रदेश में भाजपा ने अभी भी अटल की छाया से बाहर निकलना नहीं सीखा है क्योंकि उनके नाम के अलावा कोई भी नाम प्रदेश में भाजपा को एक नहीं रख पाया है जिस कारण भाजपा इस बार भी अपने परंपरागत गढ़ों के अतिरिक्त कोई बड़ा परिवर्तन कर पाने में सफल नहीं होने वाली है. कल कानपुर में जिस तरह से अरुण जेटली की मौजूदगी में कार्यकर्ताओं के दो गुटों में हिंसक संघर्ष हुआ वह भी इस पार्टी के वर्तमान अनुशासन को ही दिखाता है जब शीर्ष से ही भाजपा के नेताओं में मतभेद की ख़बरें बराबर आती रहती हैं तो निचले स्तर के कार्यकर्ताओं को समझाना और भी कठिन हो जाता है की उन्हें किस तरह से बर्ताव करना चाहिए ? समाजवादी पार्टी में भी काफी संभावनाएं हैं पर अमर सिंह को किनारे किये जाने के बाद से प्रदेश की ठाकुर बिरादरी जो काफी हद तक समाजवादी पार्टी के साथ थी आज टूटती नज़र आ रही है, आज़म खान के आने से जो लाभ समाजवादी पार्टी को मिल सकता था वह पीस पार्टी के आगे बढ़ने से जाता रहा है. फिर भी अब यह देखना दिलचस्प होगा की माया विरोधी दल चुनाव से पहले या बाद में किस तरह से उन्हें सत्ता से हटा पाने में किस फार्मूले से सफल हो पायेगें.

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