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सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

यू पी में स्थानीय निकाय चुनाव

    यू पी में जिस तरह से स्थानीय निकाय चुनावों को लेकर अभी भी भ्रम की स्थिति बनी हुई है वह लोकतंत्र की निचली सीढ़ी के लिए किसी भी स्थिति में सही नहीं कही जा सकती है. इस मामले को लेकर जहाँ कोर्ट में जाने का कोई मतलब नहीं होना चाहिए क्योंकि इस तरह के चुनावों की बाध्यता होनी चाहिए इस बारे में किसी को भी यह अनुमति नहीं दी जा सकती है कि वह अपने हिसाब से नियमों की व्याख्या करने में लग जाये. जैसा कि सभी को पता था कि चुनाव २०११ में होने हैं तो फिर इसमें नयी जनगणना का बहाना बनाया जाना कहाँ तक उचित है ? देश में संविधान की मूल भावना के साथ जिस तरह से खिलवाड़ करने की नेताओं में आदत बढ़ती जा रही है उसे किसी भी स्थिति में सही नहीं कहा जा सकता है. दूसरों को संविधान की नसीहत देने वाले यह भूल जाते हैं कि उन्हें भी संविधान की भावना का ध्यान रखना होता है ?
     उत्तर प्रदेश ने वैसे भी संविधान की मूल भावना का कभी ध्यान नहीं रखा है तो इस बार इस बात की आशा कैसे की जा सकती थी ? राज्य निर्वाचन आयोग की बाध्यता है कि वह राज्य सरकार की अधिसूचना के बाद ही कोई कदम उठा सकता है पर राज्य सरकार के सामने क्यों कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है कि वह भी समय रहते इन सभी का ध्यान रखे और चुनावों को सही समय पर करने की पूरी कोशिश करे ? कायदे से यह अधिकार राज्य सरकार से ले लिए जाने चाहिए जिससे कोई भी राज्य आगे से इस तरह से नियमों की कमी का लाभ अपने हित साधने में न कर सके. त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के तहत यह भी आवश्यक होना चाहिए कि चुनावों को टालने में कोई भी राज्य कोई कदम न उठा सके और यह प्रक्रिया अपने आप ही तय समय पर उसी तरह शुरू की जा सके जैसी कि विधान सभा और लोकसभा चुनावों में शुरू की जाती है.
   विधायी कामों में इस तरह की अजीब सी हरकतें करके नेता अपने हिसाब से कुछ प्रक्रियाओं को रोकने की कोशिशें किया करते हैं जिसकी कोई आवश्यकता नहीं होती है. इस समय जब जनगणना कार्यालय ने भी यह कह दिया है कि वह अभी डेढ़ साल तक पूरे आंकड़े नहीं दे सकता है तो क्या ये चुनाव इतने लम्बे समय तक टाले जाने वाले हैं ? जिन आंकड़ों की बात करके राज्य सरकार चुनाव टालना चाहती है उसने उसके लिए अपने कर्मचारी ही नहीं दिए तो काम कैसे पूरा हो पाता ? जब इसी वर्ष जनगणना होनी थी और सभी को पता था कि चुनाव भी इसी वर्ष होने हैं तो पहले से कोई प्रयास क्यों नहीं किये गए जिससे चुनावों को सही समय पर किसी अन्य व्यवस्था के तहत कराया जा सकता ? लगता है कि देश में हर मसले पर लम्बा समय लेने के लिए नेता लोग कोर्ट तक जाने का छोटा रास्ता अपनाने के लिए हर समय तैयार रहने लगे हैं ? अब समय आ गया है कि इस तरह के चुनावों को भी संवैधानिक बाध्यता के तहत लाया जाये जिससे इनको टालने के लिए कोई राज्य फालतू की नौटंकी न कर पाए.

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