मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

रविवार, 13 नवंबर 2011

अफ्स्पा और नियति

     कश्मीर में सेना के सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को लेकर जिस तरह से फालतू की बयानबाज़ी शुरू हो चुकी है उसका आज के समय में कोई मतलब नहीं है क्योंकि यह वही कानून है जिसके कारण कश्मीर घाटी में शांति आ पाई है और आज फिर से कुछ वोटों के लालच में नेता फिर से कश्मीर घाटी को अशांति में धकेलना चाहते हैं ? आख़िर ऐसा क्या है की इस कानून को लेकर लोगों में इतनी बेचैनी है ? क्योंकि आज सेना कश्मीर घाटी में किसी विशेष स्थान पर तैनात भी नहीं है वह केवल अर्ध सैनिक बलों को सारी व्यवस्था सौंप कर अपनी बैरकों में है तो आख़िर नेताओं के पेट में किस बात को लेकर दर्द है ? कश्मीर में शांति कितने बलिदानों के बाद आई है सेना इसकी कीमत जानती है और किसी भी राजनैतिक कारण से सेना को कुछ भी लेना देना नहीं होता है फिर उसकी भूमिका को लेकर आज इस तरह के सवाल क्यों उठाये जाते हैं ? क्या कश्मीर के कुछ नेता अपनी ज़िद के चलते मुश्किल से मिली इस शांति को फिर से ख़तरे में डालना चाहते हैं ? जिसका सेना हर स्तर पर विरोध करेगी ही और ऐसे किसी भी निर्णय को बंद कमरों में करना चाहिए न कि सार्वजनिक बयानबाज़ी से इस तरह माहौल को बिगाड़ा जाना चाहिए.  
     आज अगर यह कानून वापस ले लिया जाये और उसके बाद फिर से दबाव कम होने के कारण आतंकी लाम बंद होने लगें तो कौन सा नेता इस बात की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार है ? अच्छा होगा कि ये नेता केवल विधान सभा में ही बैठकर अपनी बकवास करें और कार्यकाल पूरा होने पर पेंशन का मज़ा उठाये जिससे वास्तविक धरातल में कुछ भी अंतर न आने पाए. अगर उमर को यह लगता है कि अधिकतर स्थानों पर शांति है तो वे किसी अपने ही कश्मीर में बिना सुरक्षा के घूमकर दिखाएँ क्योंकि अगर वे सुरक्षित हैं तभी तो जनता भी सुरक्षित रह पायेगी ? आज वे क्या चाहते हैं कि १९८८ में शुरू हुए बर्बादी के मंज़र को एक बार फिर से घाटी में शुरू करने की इजाज़त आतंकियों को दे दी जाये ? आतंकियों पर अब अमेरिका के कारण पाक में भी दबाव बढ़ता जा रहा है अफ़गानिस्तान और अफ्रीका में उनके लिए अब उतने सुरक्षित स्थान नहीं बचे हैं तो ऐसी स्थिति में अगर भारत ने किसी भी तरह की ढील दी तो आतंकी यहाँ पर फिर से अपने पैर जमा सकते हैं. साथ ही कश्मीर घाटी का इलाक़ा बहुत कठिन और दुर्गम होने के कारण हमेशा ही इस ख़तरे से दो-चार होता रहता है क्योंकि किसी भी तरह से हर जंगल और पहाड़ी की निगरानी नहीं की जा सकती है.
    आज कश्मीर की आम जनता को इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ रहा है क्योंकि वह आतंकी गतिविधियों में लिप्त नहीं है बल्कि इतने कड़े कानून होने के कारण ही उनका जीवन आसान हुआ है और आज जब सब कुछ वापस ठीक होकर पटरी पर लौटता दिख रहा है तो इस तरह की बातें करने का क्या मतलब है ? हाँ इस बात का ध्यान सेना ने हमेशा ही रखा है कि इस कानून का दुरूपयोग कहीं से भी न होने पाए और नेताओं की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वे इस कानून के किसी भी तरह के दुरूपयोग पर नज़र रखें .देश की सेना को इस बात का पूरा अधिकार है कि वही तय करे कि इस कानून के बारे में क्या करना है ? आज पूरे देश की आवश्यकता ऐसे कड़े कानून की है अगर कश्मीर घाटी के लोगों को कहीं से भी यह लगता है कि ऐसे कानून केवल उनके लिए ही क्यों तो इसे पूरे देश में लागू कर दिया जाना चाहिए क्योंकि आतंकी गतिविधियों का ख़तरा तो पूरे देश में है और जब अशांत कश्मीर घाटी को यह कानून शांत कर सकता है तो पूरे देश में शांति बनी रहे इसके लिए इसे अभी से ही क्यों न लागू कर दिया जाये जिससे घाटी के कुछ लोगों की शिकायतें भी दूर हो जायेंगीं और पूरा देश भी एक मज़बूत सुरक्षा कवच में आ जायेगा.  

मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

4 टिप्‍पणियां:

  1. अब तो प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह गिलानी को शांति दूत का दर्जा दे चुके है, अब कश्मीर में सेना की जरुरत ही कहाँ है???

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  2. देश की सुरक्षा को मानवाधिकार से कैसे जोड़ा जा सकता है।

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  3. बिल्कुल सही, भले सारे देश में लगा दो, परंतु ऐसे देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ ठीक नहीं ।

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  4. नेताओं वाली समस्या यहाँ भी हम भी क्यों नहीं नेताओं की दृष्टि से अलग होकर किसी भी समस्या को नहीं देखना चाहते हैं ?

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