मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 14 नवंबर 2011

कानून के कान

    सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से उत्तर प्रदेश सरकार के शशांक शेखर सिंह के कबिनेट सचिव पद पर नियुक्ति पर जिस तरह से सवाल उठाये हैं उसके बाद भी लगता है कि नेता लोग अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आने वाले हैं. अभी तक हर स्तर पर जिस तरह से नेता अपनी सुविधा के अनुसार ही नियमों को ठेंगा दिखाते रहते हैं उससे यही लगता है कि ये आने वाले समय में भी इस तरह से अपने लिए हर कानून को कहीं से भी कैसा भी मोड़ना शुरू कर देते हैं. देश में नेताओं ने कानून के कान जिस तरह से उमेठना शुरू कर दिया है उससे कई बार बहुत बड़ी बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है और हर स्तर पर इससे कई असुविधाएं उत्पन्न हो जाती हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से यह कहा कि बड़े प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति के मामले में कानून और नियम होने चाहिए जिससे कोई भी कहीं पर भी किसी को अपनी पसंद से नहीं बैठा सके. इन पदों पर नियुक्ति के लिए कुछ कड़े नियम ही होने चाहिए जिससे देश में प्रशासनिक व्यवस्था आसानी से चल सके.
   कोर्ट ने यह भी कहा कि अच्छे लोगों के अनुभवों पर विचार करने के लिए उन्हें सलाहकार के रूप में नियुक्त किया जा सकता है जैसा कि सैम पित्रोदा के मामले में उन्हें सलाहकार नियुक्त करके किया गया था पर इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि इन लोगों को सीधे प्रशासनिक पदों पर ही बैठा दिया जाये ? देश में प्रतिभा की कमी तो नहीं है फिर भी कुछ जगहों पर स्थान केवल सही लोगों से ही भरे जाने चाहिए केवल अपने लोगों के लिए कुछ भी नहीं कर देना चाहिए जिससे देश में एक अच्छी प्रशासनिक व्यवस्था के तहत चलाया जा सके. इस तरह से बिना प्रशासनिक योग्यता के लोगों को ऊंचे पदों पर बैठाने से पूरी व्यवस्था चरमरा सकती है और पूरे देश में ऐसी परम्परा भी बन सकती है. आज देश को बड़े स्तर पर प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता है पर हमारे नेता जिस तरह से कानून की मनमानी व्याख्या करने में लगे हुए हैं उससे तो देश उलटी दिशा में ही जाने लगा है.
    यहाँ पर सवाल यह भी है कि आख़िर अब जब प्रदेश में नयी विधान सभा को चुने जाने का समय आ गया है तो ऐसे में कोर्ट द्वारा इस तरह की टिप्पणियों से आख़िर देश का क्या भला होने वाला है ? देश में कानून की एक बहुत लम्बी प्रक्रिया है और इस पर सुनवाई करते समय कोर्ट को कोई अधिक अवसर नहीं होते हैं जिससे वह समय पर कोई निर्णय दे सके. इस प्रकरण में मायावती सरकार ने कानून के कान उमेठते हुए अपनी मनमानी तो कर ही लिए जिससे यह पता चला कि उनके मन में देश के उस संविधान की क्या अहमियत है जिसे बनाए वाली संविधान सभा के अध्यक्ष डा अम्बेडकर की कसमें खाने से वे कभी नहीं चूकती हैं ? क्या ऐसा करके उन्होंने बाबा साहब की आत्मा को कष्ट नहीं पहुँचाया या फिर इस कदम से उन वंचितों और दलितों का क्या भला हुआ जिसके लिए यह सरकार अपने को मसीहा से कम नहीं मानती ? हां इतना अवश्य हुआ कि संविधान की धज्जियाँ कैसे उड़ाई जाती हैं इसका पाठ भी अन्य नेताओं को मिल ही गया....    
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