मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

संसद का गतिरोध

संसद के शीतकालीन सत्र का आधा समय केवल हंगामे और स्थगन के कारण ही बीत चुका है और सरकार अब इस मसले को यहीं पर ख़त्म करके कुछ विधायी कार्य भी निपटाना चाहती है जिससे उसके लिए आने वाले समय में कोई बड़ी परेशानी न खड़ी हो सके. आज कल जिस तरह से विधायिका का अपहरण करके अपनी बात मनवाने का चलन निकल पड़ा है उससे लोकतंत्र की आत्मा छलनी हुई जा रही है और लोकतंत्र के तथाकथित रखवाले हमारे माननीय नेतागण केवल आपसी लाभ के लिए संसद को भी लड़ाई का अखाड़ा बनाने से नहीं चूकते हैं ? देश में लोकतंत्र जनता की तरफ़ से तो पूरी परिपक्वता प्राप्त कर चुका है क्योंकि जनता हर दल पर कड़ी नज़र रखती है और समय आने पर उसके कर्मों की सज़ा या पुरुस्कार भी उस दल को देती है पर अभी भी हमारे नेता इस बात को समझ नहीं पाए हैं कि उनकी संसद में उपस्थिति देश की भावनाओं को बचाने की है जबकि आज उनके द्वारा देश की भावनाओं की कोई कद्र नहीं की जा रही है ? संसद में जहाँ पर स्वस्थ बहस होनी चाहिए वहां पर अब केवल अपनी संख्या बल के दम पर दूसरे को नाकों चने चबवाने का काम किया जा रहा है.   
   संसद को चलाने और इन सांसदों को दिल्ली में ७ सितारा सुविधाएँ और दुनिया भर के विशेषाधिकार देने के बाद भी जनता को क्या मिलता है ? किसी भी मुद्दे पर मत भिन्नता होना स्वाभाविक है पर देश हित के मुद्दों पर सार्वजनिक स्वीकार्यता को अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए जिससे जनता भी यह देख कर खुश हो सके कि उनके द्वारा चुने गए संसद देश के लिए हर तरह की बहस करने को तैयार हैं. आज़ादी के बाद भी इस तरह के मतभेद हुआ करते थे पर इससे कभी भी संसद की गरिमा और काम काज को ठेस नहीं पहुँचती थी पर आज संसद की सर्वोच्चता की लम्बी चौड़ी बातें और परम्पराओं की क़समें खाते हमारे नेता इसकी गरिमा को धूल धूसरित करने में कोई कसर नहीं रखते हैं. संसदीय परम्पराओं में जनता की भावना और देशहित को ध्यान में रखते हुए बहस होनी चाहिए पर हमारी संसद में अब गंभीर बहस के स्थान पर शोर शराब ही बढ़ता जा रहा है जो किसी भी स्थिति में देश के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता है. जनता के पैसे पर इस तरह की लूट अपर अब तो रोक लगनी ही चाहिए और काम नहीं होने पर संसद के खर्चे को सांसदों के वेतन से काट लिया जाना चाहिए.
   संसद में अराजकता बढ़ने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं अब इन पर भी विचार किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि जब तक संसद में किये जाने वाले आचरण को ही परिभाषित नहीं किया जा सकेगा तब तक देश के बारे में कैसे सोचा जा सकता है ? पहली की तरह अब नेता राजनीति का ककहरा नहीं सीखते बल्कि वे सीधे नेतृत्व द्वारा विभिन्न कारणों से थोपे जाते हैं जिसका असर आज के शासन पर दिखाई देने लगा है अब समय आ गया है कि किसी को भी प्रत्याशी बनाते समय पार्टियाँ संसद की गरिमा के बारे में भी सोचें जिससे संसदीय मर्यादाओं के बारे में जाने के बाद ही उन्हें चुनाव लड़ने का अवसर दिया जाये इससे जहाँ एक तरफ़ नेताओं में कार्यकुशलता आएगी वहीं दूसरी तरफ़ संसद का माहौल भी अच्छा करने में मदद मिलेगी. ये बातें कार्यशालाओं में तो बहुत बार की जाती हैं पर जब इन पर अमल करने का समय आता है तो सभी दल यह भूल कर केवल जिताऊ प्रत्याशियों पर ही दांव लगाना चाहते हैं. अब सभी को छोटे रास्ते अच्छे लगते हैं कोई भी मार्ग के अवरोधों को पार करके अपने को समय की कसौटी पर नहीं कसवाना चाहता है जिससे उनका तो कुछ नहीं बिगड़ रहा पर देश के लोकतान्त्रिक मूल्यों पर पल-पल वार हो रहा है..
   
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