मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

गठबंधन सरकार का धर्म

        जिस तरह से कई मुद्दों पर अचानक ही संप्रग में कई सुर सुनाई देने लगते हैं उससे सरकार में मतभेद की ख़बरों की बातों को बहुत हवा मिलती है और आज के कमज़ोर आर्थिक परिदृश्य में इस तरह की अनिश्चितता देश के आर्थिक स्वास्थ्य को ख़राब करने का काम भी किया करती हैं. ऐसी स्थिति में अब समय आ गया है कि संप्रग में एक समन्वय समिति का गठन तुरंत किया जाये क्योंकि अब बिना इसके कुछ भी कर पाना सरकार के लिए टेढ़ी खीर साबित होने वाला है. ऐसा नहीं है कि किसी गठबंधन सरकार में इस तरह के मतभेद नहीं होते हैं पर जिस स्तर पर आज ये केंद्र सरकार में दिखाई दे रहे हैं उनसे निपटने और देश हित में स्थिर सरकार चलाये जाने की आवश्यकता है. रोज़ रोज़ की ये किचकिच अंतर्राष्ट्रीय छवि को धूमिल करती है और देश में भी भ्रम का माहौल बनता है जिसका उल्टा असर देश की आर्थिक सेहत के साथ हर बात पर पड़ता है
      संप्रग ने अपने पहले कार्यकाल में जिस सहयोग से सरकार चलायी थी और किसी भी मुद्दे पर सहयोग समिति में पहले से ही चर्चा हो जाया करती थी उसका लाभ सरकार को चलाने में दिखाई देता था क्योंकि जब सरकार स्थिर लगती है तो उसके द्वारा उठाये गए क़दमों से तुरंत ही लाभ मिलने लगता है. जब कई दलों को साथ में लेकर चलने की बात हो तो बहुत जगहों पर समझौते करने पड़ते हैं जिनमें मुख्य दल होने के नाते अब कांग्रेस को ही अधिक समझौते करने पड़ेंगें पर कोई बड़ा फैसला लेने से पहले इस पर सहयोग समिति में चर्चा कर लेने से संसद में सरकार के सुर ठीक से सुनाई देंगें और आने वाले भविष्य के लिए कुछ ठोस काम करने में सरकार वास्तव में सफल हो सकेगी. जब सरकार में किसी भी मुद्दे पर अड़ जाने वाली ममता मुख्य सहयोगी हों तो गठबंधन को चलाना थोड़ा और कठिन हो जाता है. पर ऐसा कहने से कांग्रेस अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकती है क्योंकि सरकार चलाने का ज़िम्मा आज उसके पास है तो ममता को किस तरह से वह अपने साथ रखना चाहती है यह उसे ही तय करना होगा और इस तरह की किसी बात के लिए वह विपक्ष पर अपना आरोप नहीं लगा सकती है.
      अब जब लोकपाल विधेयक संसद के सामने विचार के लिए रखा जा चुका है और अन्ना के साथ जाने में विपक्षी दलों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है तो इस मुद्दे पर अब सरकार को एक रणनीति के तहत ही काम करना पड़ेगा और अन्ना की मानी जा सकने वाली बातों को मानना ही होगा. जिस तरह से अन्ना के मंच से विभिन्न दलों ने अपनी बात को पहली बार रखा है उससे यही लगता है कि कहीं न कहीं विपक्षी दल दोहरे मानदंड अपना रहे हैं. संसद की स्थायी समिति ने जब अपने सुझाव रखे तब इन दलों ने इस तरह की बातें नहीं की पर आज उनको यह लग रहा है कि कहीं न कहीं से इसमें बदलाव करने की ज़रुरत है ? जब कानून का मसौदा बनाया जाता है तब इन लोगों की भावनाएं कुछ अलग होती हैं और जब उस पर बातें करनी होती हैं तो सुर बदल जाया करते हैं ऐसा करने से लोकपाल बिल में आवश्यक संशोधन कैसे किये जा सकेंगें ? जब विपक्ष को पता है कि राज्यसभा में उसके सहयोग के बिना कोई भी बिल पास नहीं हो सकता है तो उसे अपनी इस शक्ति का उपयोग सदन में करना चाहिए पर देश के लिए कुछ ठोस करने के लिए दबाव बनाने के स्थान पर हमारे दल केवल सरकार पर और सरकार विपक्षियों पर आरोप लगाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं. अब देश हित में संप्रग को तुरंत एक समन्वय समिति बना देनी चाहिए जो महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी राय मिला सके और कोई बड़े कदम उठाकर ठिठकने की नौबत बार बार न आये.
  

   
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