मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

अमेरिका और भारत

                   जिस तरह से अमेरिका-पाक के बिगड़ते रिश्तों ने अमेरिका और पाक में हलचल मचा रखी है उससे यही लगता है कि आने वाले समय में दोनों ही देश एक दुसरे के खिलाफ दबाव की रणनीति का प्रयोग करने जा रहे हैं पर इससे कुछ ठोस सामने आने वाला नहीं है क्योंकि इन दोनों देशों के रिश्ते आज भी केवल स्वार्थ पर ही टिके हुए हैं. ऐसे में अब अमेरिका में इस बात पर भी विचार शुरू हो चुका है कि क्या आने वाले वाले समय में भारत को एक सैन्य साझीदार के रूप में साथ में रखा जा सकता है ? जैसा कि पूरी दुनिया जानती है कि ऐसे में भारत ने हमेशा से ही एक बीच का रास्ता चुना है क्योंकि भारत की विदेश नीति किसी दूसरे देश की आर्थिक और राजनैतिक हितों की पूर्ति का साधन नहीं बन सकती है. आज भारत के पास वो ताक़त आ चुकी है जिससे अमेरिका को भी अब भारत में एक स्थायी साझेदार दिखाई देने लगा है पर अमेरिका यह भूल जाता है कि ऐसी स्थिति में भारत ने कभी भी अपना निर्धारित मार्ग नहीं छोड़ा है और आने वाले समय में किसी अन्य देश के लिए इसे छोड़ना या बदलना भी भारत के लिए असंभव ही है.
   कहने को अच्छे और मज़बूत रिश्तों के पीछे अमेरिका और पाक के सम्बन्ध केवल एक दूसरे को ठगने तक ही सीमित रहे हैं और आने वाले समय में अमेरिका के प्रभाव से निकलने के बाद पाक में आतंकी गतिविधियों के बढ़ने का ख़तरा मंडराने लगा है क्योंकि अभी तक प्रभावी अमेरिकी उपस्थिति के कारण पाक को इन तत्वों की मदद खुले आम करने में परेशानी होती थी पर अब वह खुलकर इनकी पैरवी कर सकेगा. जिस तरह से पाक की अर्थ व्यवस्था अमेरिकी सहायता पर निर्भर रहा करती है उससे यही लगता है कि अब उसके लिए कुछ समय तक जीना मुश्किल होने वाला है ? अभी तक जिस सहायता से पाक अपने लोगों के जीवन को ऊंचा उठा सकता था उसका दुरूपयोग उसने केवल वैश्विक आतंक को बढ़ाने में ही किया है और अमेरिका ने भी अपने हितों को देखते हुए चुप्पी लगाये रखी. ऐसा नहीं है कि पाक को अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों से धन नहीं मिला है पर उसने इस धन को सही जगह पर खर्च करने में कभी भी दिलचस्पी नहीं दिखाई. सेना के बेहिसाब दख़ल के कारण वहां पर नागरिक प्रशासन भी लगभग ख़त्म ही हो चुका है जिससे भी आम लोगों तक किसी भी सरकार की पहुँच नहीं है. ऐसी स्थिति पाक के साथ पूरे दक्षिण एशिया के लिए भी बहुत ख़तरनाक है क्योंकि हर मोर्चे पर असफल रहने पर पाक सेना और नेता मिलकर इस्लाम के नाम पर पाक को एक रखने के लिए आतंकी गतिविधियों को सहारा देना शुरू कर देंगें.
   भारत वैसे भी धीरे धीरे अमेरिका का बड़ा व्यापारिक साझेदार तो बन ही रहा है पर अब भी उसे अमेरिका के साथ सैन्य साझेदारी करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अमेरिका की नीतियां उसके हित की होती हैं और वह कभी भी पूरे विश्व को ध्यान में रखकर इनका निधारण नहीं करता है ऐसे में भारत अमेरिका के झूठे अहम् की लड़ाई में आख़िर उसका साथ क्यों दे ? भारत में किसी भी सरकार के लिए ऐसा नीतिगत फ़ैसला करना आसान नहीं होगा क्योंकि यहाँ पर इस तरह के फ़ैसले एक हाथ में होने के स्थान पर सामूहिक नेतृत्व के हाथ में हैं और हर बड़े बदलाव के लिए यहाँ के राजनैतिक तंत्र की पूरी मंज़ूरी आवश्यक होती है जो कि किसी भी स्थिति में आसान नहीं होने वाला है. अभी तक भारत ने अपने लिए किसी विशेष सैन्य साझीदार का चुनाव नहीं किया है आज हमारी ज़रूरतों को रूस और अमेरिका समेत कई अन्य देश पूरा कर रहे हैं जिससे किसी एक पर निर्भर होने के लिए हमें सोचने की ज़रुरत भी नहीं है. जब हम बाज़ार के मूल्यों पर सैन्य सामन की खरीददारी कर रहे हैं तो हमें इस बात की भी ज़रुरत नहीं है कि हम अमेरिका की हर उलटी सीधी बात को पाक की तरह ऐसे ही मान लें. अगर अमेरिका को पाक पर दबाव बनाने के लिए भारत की आवश्यकता है तो भारत उसके हितों के लिए अपनी नीतियों का बदलाव क्यों करे ?          
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2 टिप्‍पणियां:

  1. अमेरिका को यह भी सदबुद्धि मिले कि भारत भी आतंकवाद से पीड़ित है।

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  2. अमेरिका से न्याय व्यवस्था, अपने नागरिकों का हित साधना, नियमों को सब पर एक सा लागू करना तो सीखना ही चाहिए.

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