उत्तर प्रदेश हमेशा से ही देश की राजनीति का केंद्र रहा है पर पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह से देश की राजनीति में इसका रसूख़ कम हुआ है उससे यही लगता हैं कि कहीं न कहीं इस बार फिर से क्षेत्रीय दलों के चक्कर में फंसकर यहाँ की राजनैतिक ताक़त फिर से कम ही न रह जाये. आने वाले समय में हो सकता है कि माया सरकार की मंशा और राजनैतिक मजबूरी के चलते उत्तर प्रदेश के वर्तमान स्वरुप में यह आख़िरी चुनाव हों क्योंकि किसी को भी नहीं पता है कि अगली सरकार किस तरह से बनेगी और प्रदेश के बंटवारे पर वह किस तरह से काम करेगी ? किसी भी प्रदेश का रसूख़ वैसे तो वहां के नेतृत्व के कारण ही पता चलता है पर देश के कुछ राज्यों के कुछ मुख्यमंत्रियों ने इतने अच्छे से काम किया है कि वे आज पूरे देश में अपने काम से जाने जाते हैं. इसके पीछे वहां की कोई राजनैतिक शक्ति नहीं वरन नेता की इच्छा शक्ति ही काम आती है. अब समय है कि उत्तर प्रदेश भी ऐसे नेतृत्व को तलाशे और अपनी राजनैतिक विरासत को बचाए रखने के साथ देश के सामने उदाहरण भी प्रस्तुत करे.
उत्तर प्रदेश में १९९१ के बाद पहली बार २००७ में पूर्ण बहुमत से बनी बसपा सरकार के कारण लोगों को यह भरोसा हो गया था कि आने वाले समय में प्रदेश अपनी पुरानी स्थिति को फिर से प्राप्त कर सकेगा पर सारे परिदृश्य को सरकार पर हावी होकर कुछ लोगों ने ही ढक लिया और जिसका परिणाम यह है हमेशा पूरी तैयारी और मज़बूती से चुनाव लड़ने वाली बसपा भी अपनी ज़मीनी स्थिति का अंदाज़ा लगाकर प्रत्याशियों को बदलने में जुटी हुई है. इस बार के चुनाव में जिस तरह से सपा और बसपा में प्रत्याशियों को बदलने की होड़ लगी हुई है उससे यही लगता है कि ये दल अपने पहले के चुने गए प्रत्याशियों से पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हैं और अब दूसरे दलों से मज़बूत प्रत्याशियों के आने से इन्हें यह लग रहा है कि उनके पुराने वाले मोहरे आसानी से पिट सकते हैं. चुनावों में इस तरह से इतने बड़े पैमाने पर प्रयाशी बदलने से जहाँ कुछ दलों की राजनैतिक संभावनाओं पर अनुकूल असर पड़ता है वहीं कई बार अंतिम समय में नए लोगों को अनुभव न होने से पार्टियों को इसका नुकसान भी उठाना पड़ता है पर इस पूरी कवायद का असर केवल और केवल प्रदेश के भविष्य पर ही पड़ने वाला है.
इस बार के चुनावों में यह तय हो जाने वाला है कि उत्तर प्रदेश की जनता भी बिहार की तरह धर्म और जाति के कुचक्री समीकरणों से बाहर निकल चुकी है या अभी भी वह कुछ वर्षों तक इस अभिशाप के साथ ही जीना चाहती है जिसमें सब कुछ जाति आधारित ही हुआ करता है ? जाति और धर्म के नाम पर कुछ वोट तो बटोरे जा सकते हैं पर इस तरह से जीत कर आने वाले लोग किसी तरह से समाज के सभी वर्गों के हितों की बात कर पायेंगें यह भविष्य के गर्भ में ही रहने वाला है. अब जिस तरह से देश में सुशासन की बात की जानी लगी है और आने वाले समय में जनता भी इन मुद्दों के लिए संवेदन शील होकर गुण-अवगुण पर विचार करके ही वोट देने लगी है तो हो सकता है कि कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश भी अपनी पुरानी गरिमा को पा सके ? फ़िलहाल तो यही देखने वाला होगा कि हमारे नेता इस बार जनता के चक्कर में फंसते हैं या फिर से एक बार देश को दिशा दिखाने का काम करते हुए इन पुराने झटकों से बाहर आने की इच्छा भी रखते हैं.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
उत्तर प्रदेश में १९९१ के बाद पहली बार २००७ में पूर्ण बहुमत से बनी बसपा सरकार के कारण लोगों को यह भरोसा हो गया था कि आने वाले समय में प्रदेश अपनी पुरानी स्थिति को फिर से प्राप्त कर सकेगा पर सारे परिदृश्य को सरकार पर हावी होकर कुछ लोगों ने ही ढक लिया और जिसका परिणाम यह है हमेशा पूरी तैयारी और मज़बूती से चुनाव लड़ने वाली बसपा भी अपनी ज़मीनी स्थिति का अंदाज़ा लगाकर प्रत्याशियों को बदलने में जुटी हुई है. इस बार के चुनाव में जिस तरह से सपा और बसपा में प्रत्याशियों को बदलने की होड़ लगी हुई है उससे यही लगता है कि ये दल अपने पहले के चुने गए प्रत्याशियों से पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हैं और अब दूसरे दलों से मज़बूत प्रत्याशियों के आने से इन्हें यह लग रहा है कि उनके पुराने वाले मोहरे आसानी से पिट सकते हैं. चुनावों में इस तरह से इतने बड़े पैमाने पर प्रयाशी बदलने से जहाँ कुछ दलों की राजनैतिक संभावनाओं पर अनुकूल असर पड़ता है वहीं कई बार अंतिम समय में नए लोगों को अनुभव न होने से पार्टियों को इसका नुकसान भी उठाना पड़ता है पर इस पूरी कवायद का असर केवल और केवल प्रदेश के भविष्य पर ही पड़ने वाला है.
इस बार के चुनावों में यह तय हो जाने वाला है कि उत्तर प्रदेश की जनता भी बिहार की तरह धर्म और जाति के कुचक्री समीकरणों से बाहर निकल चुकी है या अभी भी वह कुछ वर्षों तक इस अभिशाप के साथ ही जीना चाहती है जिसमें सब कुछ जाति आधारित ही हुआ करता है ? जाति और धर्म के नाम पर कुछ वोट तो बटोरे जा सकते हैं पर इस तरह से जीत कर आने वाले लोग किसी तरह से समाज के सभी वर्गों के हितों की बात कर पायेंगें यह भविष्य के गर्भ में ही रहने वाला है. अब जिस तरह से देश में सुशासन की बात की जानी लगी है और आने वाले समय में जनता भी इन मुद्दों के लिए संवेदन शील होकर गुण-अवगुण पर विचार करके ही वोट देने लगी है तो हो सकता है कि कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश भी अपनी पुरानी गरिमा को पा सके ? फ़िलहाल तो यही देखने वाला होगा कि हमारे नेता इस बार जनता के चक्कर में फंसते हैं या फिर से एक बार देश को दिशा दिखाने का काम करते हुए इन पुराने झटकों से बाहर आने की इच्छा भी रखते हैं.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
सब जिम्मेदारी जनता की! उसे जिसे शिक्षित तक नहीं किया गया.
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