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गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

लोकपाल का संविधानिक दर्ज़ा

     जिस तरह से संसद में लोकपाल विधेयक को पारित किया गया उससे यही लगता है कि आने वाले समय में इस बात को लेकर और अधिक राजनीति होने वाली है. सरकार ने जिस तरह से अन्ना की पल पल बदलती मांगों को संविधान की मूल भावना के अनुसार इस लोकपाल बिल में समायोजित करने की कोशिश की है उससे यही लगता है कि किसी भी सरकार के लिए यह काम कर पाना इतना आसान नहीं था फिर भी अन्ना का दबाव काम आया और आख़िर में एक तरह का लोकपाल देश के सामने आ ही गया है. जिस तरह से भाजपा ने पहले स्थायी समिति में लोकपाल को संवैधानिक दर्ज़ा दिए जाने के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई थी और सदन में ऐन मौके पर उसने इस मुद्दे पर अपनी राय बदल दी उससे यही लगता है कि भाजपा यह दिखाना चाहती थी कि उसकी मर्ज़ी के बिना कुछ भी संभव नहीं होने वाला है. सदन का काम काज आपसी विमर्श और सद्भाव के साथ चला करता है पर इस मामले में भाजपा ने हर बार राजनैतिक लाभ उठाने की पूरी कोशिश की. जब संसद में कोई कानून बनाया जाता है तो उसके गुण दोषों पर खुली चर्चा की जाती है पर इस बार जिस तरह से लोकपाल पर लुकाछिपी का खेल खेला गया उससे कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है.
   कहीं ऐसा तो नहीं कि लोकपाल को संवैधानिक दर्ज़ा देने की बात राजनैतिक हलकों में सबसे पहले राहुल ने की थी इस लिए भाजपा किसी भी स्थिति में वर्तमान लोकपाल को यह दर्ज़ा अपने संख्या बल के दम पर नहीं देना चाहती थी जबकि उसने पहले ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वह लोकपाल के संवैधानिक दर्जे का सदन में समर्थन करेगी ? ऐसी स्थिति में मूल्यों की राजनीति की बात करने वाले लोग राजनैतिक गिरावट पर चिंता ही ज़ाहिर कर सकते हैं क्योंकि जब तक पुरानी पीढ़ी के नेताओं के हाथ में भाजपा का नेतृत्व रहा तो उन्होंने कभी भी सदन में इस तरह से अपने पूर्व नियोजित मार्ग से अचानक ही कोई बदलाव कभी नहीं किया. पर आज जिनके हाथ में कमान है वे शायद अपने को कुछ क्षणों के लिए विजयी बताकर ही खुश हो जाने वाली जमात से हैं इसलिए उन्हें लोकतान्त्रिक मूल्यों की कोई परवाह नहीं है. भाजपा को यह बात पहले से ही पता थी कि अगर सरकार को उसकी सहमति नहीं मिलेगी तो वह इसे संवैधानिक दर्ज़ा नहीं दे पायेगी तो ऐसे में उसे सरकार से यह बात साफ़ शब्दों में कह देनी चाहिए थी पर टीम अन्ना के सामने दिए गए आश्वासनों को तोड़कर उनके साथ रहने की कसमें खाने में भाजपा के लोग अब महारत हासिल कर चुके हैं.
     जिस तरह से टीम अन्ना के सदस्य प्रशांत भूषण ने यह कहा है कि लोकसभा में लोकपाल का पारित होना ही अपने आप में बहुत बड़ी बात है उससे यही लगता है कि आने वाले समय में टीम अन्ना की तरफ से इस लोकपाल पर चर्चा के बाद कुछ संशोधन सामने आयें. अब जब यह विधेयक राज्यसभा में आने वाला है तो इस पर पूरी राजनीति होने की सम्भावना है क्योंकि जब तक यह पूरी तरह से कानून का दर्ज़ा नहीं पा लेता है तब तक इस पर इस तरह की गतिविधियाँ चलती ही रहेंगीं. अब समय है कि देश को एक निष्पक्ष और निडर लोकपाल की तलाश शुरू कर देनी चाहिए क्योंकि अब कानून बनने के बाद लोकपाल का गठन भी बहुत बड़ा मुद्दा होने जा रहा है. देश को इस कानून के तहत अब एक मज़बूत व्यक्ति भी चाहिए जो देश का पहला लोकपाल बन सके और टीम अन्ना की सभी आशंकों को ख़ारिज़ कर सके. देश को अब इस मुद्दे पर राजनीति छोड़कर आगे बढ़ने की ज़रूर है. पर क्या देश के राजनेता इस मुद्दे पर कुछ हटकर सोचना भी चाहते हैं या उन्हें अभी भी उसी तरह से आपस में मतभेद के मुद्दों को जीवित रखने का मन है...       
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