लगता है कि चुनाव आयोग के सामने की गयी विपक्षी दलों की शिकायतों का असर जल्दी ही उत्तर प्रदेश में दिखाई देने लगेगा जिसके तहत पूरे प्रदेश में लगायी गयी हाथी और मायावती की मूर्तियों को चुनाव संपन्न होने तक परदे में रहना होगा. विपक्षी दलों ने आयोग से शिकायत की थी कि जिस तरह से माया सरकार ने पूरे प्रदेश में अपनी और अपने चुनाव निशान हाथी की मूर्तियाँ लगा रखी हैं उससे मतदाता को प्रभावित किया जा सकता है और आने वाले चुनाव में मतदाता इसके प्रभाव में आ सकते है. चुनाव आयोग सैद्धांतिक रूप से इस बात से सहमत भी है और सम्भावना है कि अगले एक दो दिनों में इस सम्बन्ध में आदेश भी जारी हो सकते हैं. जिस तरह से पूरे देश में राजनेता हर प्रकार से अपने चुनावी हितों को जनता के पैसों से पूरा करना चाहते हैं वह अपने आप में बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. अभी भी इस बात का अंदाज़ा नेता नहीं लगा पा रहे हैं कि आख़िर किस तरह से वे जनता के पैसे का पूरे ५ वर्षों तक दुरूपयोग करते रहते हैं और चुनाव आते ही उसका लाभ उठाने की भी सोचते हैं ? अब समय है कि इस तरह की ओछी राजनीति के स्थान पर मुद्दों और विकास की राजनीति की जाये.
हर स्थान पर नेता लोग जनता के हितों की बात ही करते नहीं थकते हैं पर जब भी जनता से सही बात कहने और करने का समय आता है तो ये सभी अपने आप ही यह तय करने में लग जाते हैं कि क्या सही है और क्या ग़लत है ? इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है कि जब देश हित की बात आती है तो हमारा मूर्छित पड़ा राजनैतिक तंत्र सन्निपात में चला जाता है जिस कारण से देश के हित हमेशा ही पीछे छूट जाया करते हैं ? आख़िर देश के नेताओं को यह बात क्यों समझ नहीं आती है कि चाहे जिस भी दल की सरकार हो जनता को खाना, पानी, बिजली, सड़क से अधिक और कुछ नहीं चाहिए होता है पर आज तक अनियंत्रित विकास के कारण देश का पैसा ग़लत तरीके से खर्च करने की परंपरा बनती जा रही है ? ऐसा भी नहीं है कि सभी योजनायें किसी काम की न हों पर आम तौर पर जिन योजनाओं का ढिंढोरा पीता जाता है वे पूरी तरह से खोखली साबित होती हैं और जनता का किसी भी तरह से कोई भला नहीं होता है हाँ इन योजनाओं से नेताओं के खज़ाने ज़रूर भर जाया करते हैं ?
देश के कानून में ऐसा कुछ अवश्य होना चाहिए कि कोई भी पार्टी कहीं पर भी इस तरह से किसी के स्वाभिमान के बारे में बातें करते करते ऐसे कदम न उठाने लग जाए जिसका स्वाभिमान से कोई मतलब ही नहीं है ? क्या किसी समूह दल या नेता का स्वाभिमान केवल कुछ मूर्तियों से ही पूरा हो सकता है ? आज अगर माया के सामने यह मुद्दा आया है तो इसके पीछे उनकी अपने चुनाव निशान और अपनी मूर्तियाँ लगाने कि ज़िद ही बड़ा कारण है क्योंकि अभी तक देश में किसी पार्टी ने किसी भी तरह से सरकारी धन का उपयोग सार्वजानिक भूमि पर सार्वजानिक पैसे से अपने चुनाव निशान लगवाने में नहीं किया है ? अगर यहाँ पर डॉ आंबेडकर और कांशीराम की मूर्तियाँ ही लगी होती तो उनको ढकने या छिपाने की बात ही नहीं उठती पर जब उनके साथ हाथी और माया की ख़ुद की मूर्तियाँ भी लगी हुई हैं तो सैद्धांतिक तौर पर यह बात ग़लत भी लगती है. किसी नेता के जनसभा में किये गए खर्च को आयोग पूरी तरह से चुनावी खर्च में जोड़ने की बातें करता है तो ऐसे स्थिति में आख़िर किस तरह से इन हाथियों और माया की मूर्तियों का खर्च किस प्रत्याशी के खाते में जोड़ा जायेगा ? फिलहाल यह देश का दुर्भाग्य ही है कि विकास और प्रगति के स्थान पर आज हम चुनाव में हाथियों को ढकने के मुद्दे पर बात कर रहे हैं ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
हर स्थान पर नेता लोग जनता के हितों की बात ही करते नहीं थकते हैं पर जब भी जनता से सही बात कहने और करने का समय आता है तो ये सभी अपने आप ही यह तय करने में लग जाते हैं कि क्या सही है और क्या ग़लत है ? इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है कि जब देश हित की बात आती है तो हमारा मूर्छित पड़ा राजनैतिक तंत्र सन्निपात में चला जाता है जिस कारण से देश के हित हमेशा ही पीछे छूट जाया करते हैं ? आख़िर देश के नेताओं को यह बात क्यों समझ नहीं आती है कि चाहे जिस भी दल की सरकार हो जनता को खाना, पानी, बिजली, सड़क से अधिक और कुछ नहीं चाहिए होता है पर आज तक अनियंत्रित विकास के कारण देश का पैसा ग़लत तरीके से खर्च करने की परंपरा बनती जा रही है ? ऐसा भी नहीं है कि सभी योजनायें किसी काम की न हों पर आम तौर पर जिन योजनाओं का ढिंढोरा पीता जाता है वे पूरी तरह से खोखली साबित होती हैं और जनता का किसी भी तरह से कोई भला नहीं होता है हाँ इन योजनाओं से नेताओं के खज़ाने ज़रूर भर जाया करते हैं ?
देश के कानून में ऐसा कुछ अवश्य होना चाहिए कि कोई भी पार्टी कहीं पर भी इस तरह से किसी के स्वाभिमान के बारे में बातें करते करते ऐसे कदम न उठाने लग जाए जिसका स्वाभिमान से कोई मतलब ही नहीं है ? क्या किसी समूह दल या नेता का स्वाभिमान केवल कुछ मूर्तियों से ही पूरा हो सकता है ? आज अगर माया के सामने यह मुद्दा आया है तो इसके पीछे उनकी अपने चुनाव निशान और अपनी मूर्तियाँ लगाने कि ज़िद ही बड़ा कारण है क्योंकि अभी तक देश में किसी पार्टी ने किसी भी तरह से सरकारी धन का उपयोग सार्वजानिक भूमि पर सार्वजानिक पैसे से अपने चुनाव निशान लगवाने में नहीं किया है ? अगर यहाँ पर डॉ आंबेडकर और कांशीराम की मूर्तियाँ ही लगी होती तो उनको ढकने या छिपाने की बात ही नहीं उठती पर जब उनके साथ हाथी और माया की ख़ुद की मूर्तियाँ भी लगी हुई हैं तो सैद्धांतिक तौर पर यह बात ग़लत भी लगती है. किसी नेता के जनसभा में किये गए खर्च को आयोग पूरी तरह से चुनावी खर्च में जोड़ने की बातें करता है तो ऐसे स्थिति में आख़िर किस तरह से इन हाथियों और माया की मूर्तियों का खर्च किस प्रत्याशी के खाते में जोड़ा जायेगा ? फिलहाल यह देश का दुर्भाग्य ही है कि विकास और प्रगति के स्थान पर आज हम चुनाव में हाथियों को ढकने के मुद्दे पर बात कर रहे हैं ?
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