मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

रविवार, 15 जनवरी 2012

परदे में रहने दो...

          चुनाव आयोग की बातों पर लखनऊ विकास प्राधिकरण किस तरह से काम कर रहा है इस बात का अंदाज़ा इसी बात से लग गया है कि वहां स्थिति स्मारकों में केवल मूर्तियों को ढकने का काम करने के आदेश के अनुपालन में उन्होंने पूरे स्मारक ही बंद करा दिए हैं जिससे प्राधिकरण को टिकट के माध्यम से होने वाली लगभग २० हज़ार रुपयों की चपत रोज़ ही लगने वाली है. जिस तरह से राजनैतिक लाभ के लिए इनको लगवाया गया और अब इनको ढकने से भी जिस तरह से राजनैतिक लाभ उठाने की कोशिश की जा रही हैं उससे संविधान की मूल भावना का सम्मान कैसे हो सकता है ? यह सही है कि विरोधी दल चुनाव में सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं रखना चाहते हैं उन्होंने इसी क्रम में चुनाव आयोग से मायावती और हाथियों की मूर्तियों की शिकायत की थी पर अब बसपा इस बात को भी दलित वोटों तक ले जाने की फिराक में है. वैसे भी प्रदेश में बसपा का दलित जनाधार आज भी बना हुआ है तो ऐसे में जितना प्रचार इस मुद्दे का होगा उससे बसपा के वोट तो बढ़ने वाले नहीं है पर विपक्षी इसे मुद्दा बनाने में नहीं चूकेंगें.
      देश में राजनीति इस हद तक गिर चुकी है कि अब जब चुनाव में देश/प्रदेश के सामने आने वाले मुद्दे आगे आने चाहिए तो यहाँ पर जनता को मूर्तियों के चक्कर में फँसाने का प्रयास किया जा रहा है. आज देश और प्रदेश में बेरोज़गारी बड़ा मुद्दा नहीं है किसी को भी मंहगाई से मतलब नहीं है किसी को ख़राब पड़ी सड़कों और बिजली की कमी मुद्दे के रूप में नहीं दिखाई देती है और आज वे जिस तरह की छोटी छोटी बातों में महाबहस को ख़त्म करने का प्रयास कर रहे हैं वह किस तरह से देश को आगे ले जाने का काम करेंगें ? आज भी देश को जिन मूलभूत सुविधाओं की ज़रुरत है उन पर कौन बात करेगा ? कोई नहीं क्योंकि नेता नहीं चाहते कि किसी भी स्थिति में देश की जनता के सामने ये मुद्दे आयें ? आज बहस होनी चाहिए थी कि काले धन को देश में कैसे वापस लाया जाये ? कैसे खुदरा क्षेत्र में विदेशी पूँजी निवेश को बढ़ावा दिया जाये ? लोकपाल को किस स्वरुप में जनता के सामने लाया जाये ? पर ये ऐसे मुद्दे हैं जो नेताओं की नाक में दम कर दिया करते हैं इसलिए कोई भी इन पर खुली बहस करने को तैयार नहीं दिखता है ?
     सड़क पर आन्दोलन करना और जनता के सामने मुद्दों पर आधारित वोट माँगना दोनों अलग अलग हैं जिससे देश के सामने आने वाले बड़े बड़े मुद्दे भी पीछे छूट जाया करते हैं. जिस लोकपाल को लाने के नाम पर संसद में कोई काम ठीक से नहीं हुआ जिस भ्रष्टाचार को लेकर बड़े बड़े नेता गलियों में ख़ाक छानते घूमें आज चुनाव के समय भी वे मुद्दे के रूप में नहीं दिख रहे हैं ? आख़िर कब जनता इस मूर्छा से बाहर आएगी कि उसे वास्तव में सही मुद्दों पर राजनैतिक दलों की राय मिल सकेगी ? जो मुद्दे देश के जनमानस को उद्देलित कर रहे थे आज वे गौण हो चुके हैं और किसी भी प्रकार से कुछ अधिक सीटें पाने के जुगाड़ ने प्रदेश के भविष्य को बंधक बना लिया है. सच ही है कि मूर्तियों और हाथियों को ढकने के बहाने से राजनेताओं ने निरर्थक बहस की शुरुआत करके बहस के योग्य मुद्दों को बड़ी चालाकी से परदे में डाल दिया है. ये पर्दा मूर्तियों पर नहीं वरन ज्वलंत मुद्दों पर पड़ गया है और सभी दल सुकून की सांस ले रहे हैं और कह भी रहे हैं कि परदे में रहे दो.....  
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