मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 5 जून 2012

आर्थिक संकट में देश

    कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जिस तरह से उपस्थित नेताओं ने संप्रग सरकार के गिरते हुए राजनैतिक ग्राफ पर चिंता जताई उससे यही लगता है कि आने वाले समय में सरकार कुछ कड़े फैसले भी ले सकती है पर आज पूरी दुनिया में जिस तरह के आर्थिक संकट बढ़ता ही चला जा रहा है उस स्थिति में अब किसी भी देश के पास अपने को बचाकर रखने के लिए कितने मार्ग बचे हैं यही सोचने का विषय है क्योंकि जिस तरह से पूरी दुनिया के विकसित और विकास शील देशों के आर्थिक हित आपस में जुड़ गए हैं उस स्थिति में किसी एक देश के लिए अकेले ही कुछ भी कर पाना संभव नहीं रह गया है. वैश्विक अर्थव्यवस्था में बड़े खिलाडी हमेशा ही अपने हितों की बातें करते रहते हैं क्योंकि उनके यहाँ जनता इन सब बातों पर कड़ी नज़र रखती है पर भारत में हालत बहुत अलग हैं जनता जिन्हें चुनकर अपनी बात को संसद में उठाने के लिए भेजती है वे वहां पर कुछ सार्थक करने के स्थान पर केवल अराजकता को ही सब कुछ मान लेते हैं. यहाँ पर हर बात का राजनैतिक लाभ उठाने की नेताओं और दलों की आदत ने देश के लिए हमेशा से ही संकट उत्पन्न करने का काम किया है जिससे जनता के लिए और अधिक संकट बढ़ जाते हैं.
       देश में जिन आर्थिक सुधारों को १९९१ में नरसिम्हा राव सरकार में वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने लागू किया था उसका लाभ देश को निश्चित तौर पर मिला और बीच में भाजपा के नेतृत्व में राजग ने भी उन नीतियों को तेज़ी से बदलते आर्थिक परिदृश्य में लागू करना देश के हित में समझा. राजग सरकार के समय जितने बड़े पैमाने पर विनिवेश किया गया वह पार्टी की आर्थिक दृष्टि को दर्शाता है पर जब से भाजपा सत्ता से बाहर हुई तभी से उसने इस तरह के क़दमों पर राजनीति करनी शुरू कर दी. देश का यही दुर्भाग्य है कि आज तक हमारे राजनैतिक दल इस बात को ही नहीं समझ पाए हैं कि उन्हें किस तरह का भारत चाहिए ? सरकारें तो आती जाती रहेंगीं पर देश के लिए बड़े नीतिगत फैसले अचानक ही नहीं लिए जा सकते हैं उन पर देश के राजनैतिक तंत्र को अब एकमत हो होना ही पड़ेगा वर्ना हमारी अर्थव्यस्था मंदी की चपेट में हैं यह बात अब सरकार भी मानने लगी है जिसका सीधा असर आने वाले समय में देश की जनता पर ही पड़ने वाला है.
      मनमोहन सिंह की आर्थिक मसलों पर विश्व में धाक हो सकती है पर यह आवश्यक तो नहीं कि देश के लिए उनके द्वारा उठाये गए सभी कदम पूरा फल दे सकें इसीलिए देश की लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का लाभ उठाकर सभी राजनैतिक दलों को राष्ट्र हित में कुछ मुद्दों पर एकमत होना चाहिए और उस पर खुलकर बहस भी करनी चाहिए पर आज जहाँ पर बहस होनी चाहिए वहां पर कुछ भी नहीं हो पाता है और देश के ज्वलंत मुद्दे बहस के स्थान पर अराजकता की भेंट चढ़ जाते हैं. पिछली बार की वैश्विक मंदी में हमारे देश का प्रदर्शन ठीक ठाक ही रहा था पर अब ढुलमुल फैसलों के स्थान पर आवश्यक कदमो को तुरंत ही उठाया जाना चाहिए. भारत की अर्थव्यवस्था गाँवों में बस्ती है और ग्रामीण क्षेत्र से जुड़े कार्यों से अगर भ्रष्टाचार दूर किया जा सके तो हमें नीतियों में बड़े परिवर्तन की आवश्यकता ही नहीं पड़े और देश इस बार अपनी फैली हुई अर्थ व्यवस्था के दम पर ही सँभालने का काम कर सके. पर इन सबके लिए जिस राजैतिक समझ की आवश्यकता है वह आज भी हमारे देश में नहीं दिखाई देते है जिस कारण भी हम दुनिया को अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं दे पाते हैं.     
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