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मंगलवार, 26 जून 2012

दरगाह, आग़ और अशांति

    पुराने श्रीनगर स्थित २०० वर्ष पुरानी दस्तगीर साहिब की दरगाह में जिस तरह से अचानक ही आग़ लगी और वह कुछ देर में ही लकड़ी के बने पूरे परिसर में फैली वह प्रथम दृष्टया एक दुर्घटना ही लगती है पर इसका समय और इसके बाद जिस तरह से घाटी में अनावश्यक तनाव बढ़ा उससे यही लगता है कि कहीं यह एक बार फिर से वार्षिक अमरनाथ यात्रा के समय की जाने वाली सुनियोजित साजिश तो नहीं है ? पिछले कई वर्षों से कश्मीर घाटी में सक्रिय कुछ तत्व इस अमरनाथ यात्रा के समय इस तरह की किसी न किसी घटना को जन्म देते रहते हैं जिससे घाटी समेत पूरे देश में तनाव बढ़ जाया करता है. इस घटना पर पूरा ध्यान देने से यह पता चलता है कि इस तरह की घटना कहीं भी घट सकती है पर जिस तरह से पुलिस और अग्निशमन कर्मियों पर पथराव किया गया और उनको इस बात के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया उसका क्या औचित्य था ? बाकी रही सही कसर हुर्रियत जैसे जेबी अलगाव वादी संगठनों ने अपनी बैठक के बाद पूरी कर दी. जिस तरह से हुर्रियत ने ऐसे समय में भी लाभ उठाने की बात सोची वह उसकी मानसिकता और घाटी के लोगों के प्रति उसके तथाकथित समर्पण को ही दर्शाता है क्योंकि जब कश्मीर में शांति लौटती दिखाई देती है तभी हुर्रियत कुछ ऐसे तत्वों के साथ मिलकर हमेशा से ही कश्मीर को अलग थलग करने की कोशिश करने में लगी रहती है.
       इस आग के लगने और पवित्र दरगाह के जल जाने के बाद जिस तरह से आम लोगों को भड़का कर सड़कों पर उतारा गया और पुलिस से बिना किसी कारण के संघर्ष किया गया उसे किस तरह से सही ठहराया जा सकता है ? हुर्रियत के नेता ख़ुद तो उसी सरकार से प्राप्त सुरक्षा में रहते हैं जिसको वे पानी पी पी कर हमेशा कोसते रहते हैं और साथ ही हर सरकारी सुविधा का लाभ उठाने से भी नहीं चूकते हैं ? इस मामले की जांच के आदेश सरकार ने दे दिए हैं कि इसके पीछे किन कारणों का हाथ रहा पर जिस तरह से पुलिस को निशाना बनाया गया उससे यही लगता है कि जैसे पुलिस ने इस काम को अंजाम दिया है ? जबकि वास्तविकता यह है कि पुलिस और अग्निशमन दल ने अपनी पूरी कोशिश की पर पूरा परिसर लकड़ी का बने होने के कारण जलकर नष्ट हो गया फिर भी पीर साहिब के पवित्र अवशेष और पवित्र ग्रन्थ सुरक्षित ही रहे क्योंकि वे अग्नि रोधक स्थान पर रखे हुए थे. इस पूरे प्रकरण में जिस तरह से एक साथ ही इतने लोगों को प्रदर्शन के लिए आह्वाहन किया गया उसका क्या औचित्य था ? अच्छा होता कि इस समय उस पवित्र स्थान को दोबारा से बनाने की बातें की जाती पर हुर्रियत को भी अपने अका पाकिस्तान की तरह कश्मीर की खुशहाली कभी से ही रास नहीं आती है और वह भी नहीं चाहती है कि घाटी के लोग अमन के साथ जी सकें ? क्या कश्मीर के लोग वास्तव में इतने असहिष्णु हैं कि इस तरह के आपदा के बारे में भी सही ढंग से नहीं सोच सकते हैं ? शायद नहीं पर उनके नेताओं की रोटियां कुछ निर्दोष कश्मीरियों के खून से ही सिक सकती हैं तो फिर वे उसमें पीछे क्यों रहें ?
     कश्मीर घाटी में वार्षिक अमरनाथ यात्रा से लोगों की आर्थिक स्थिति को मज़बूत करने में काफी सहायता मिलती है पर हर वर्ष इस समय ही तनाव फैला कर घाटी के लोगोंके आर्थिक हितों पर इसी तरह से चोट पहुंचाई जाती है और सबसे चिंता की बात यह है कि आज भी आम कश्मीरी इस बात को या तो समझ नहीं रहे या फिर वे इसे समझना ही नहीं चाहते कि घाटी में शांति रहने से अमरनाथ यात्रियों के मन में भी कश्मीर घूमने की चाह बढ़ जाती है पर अनावश्यक रूप से यहाँ की स्थिति को तनावपूर्ण बनाने से पवित्र गुफा तक जाने वाले अधिकांश यात्री घाटी आने के स्थान पर पहलगाम मार्ग से वापस जाकर घाटी की आर्थिक स्थिति को मज़बूत कंरनेे अपने प्रयासों से दूर हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में जिन लोगों की रोज़ी इस यात्रा पर बहुत हद तक निर्भर करती है वे आख़िर किसके सामने अपना रोना रोने जाएँ ? अब समय है कि घाटी की जनता को अपने हितों को खुद अपने हाथों में रखना सीखना होगा और इसकी चाभी अनजाने में उसने जो हुर्रियत के हाथों सौंप रखी है उसे भी वापस लेना होगा क्योंकि इस यात्रा के घाटी पर पड़ने वाले असर से हुर्रियत के लोगों पर कोई फर्क नहीं पड़ता है पर आम जनता के लिए समस्या खड़ी होती है. अब समय है कि इस मसले को धार्मिक या राजनैतिक स्तर के स्थान पर आर्थिक स्तर पर निपटना चाहिए क्योंकि जब आम कश्मीरियों के सामने रोज़ी का संकट होगा तो वे किस तरह से कश्मीर की भलाई के लिए काम कर पायेंगें ?     
   

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