मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

बुधवार, 15 अगस्त 2012

लोकतंत्र और भ्रष्टाचार

          स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति के रूप में देश को अपने संबोधन में महामहिम प्रणब मुखर्जी ने जिस तरह से भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लोगों में गुस्से पर चर्चा की वह उनके लम्बे राजनैतिक जीवन और अनुभव के बारे में बताता है. अपने राजनैतिक जीवन में उन्होंने कई दशकों तक विभिन्न नेताओं के साथ मिलकर देश के लिए नीतियों के निर्धारण का काम किया है और उन्होंने विकास के साथ पनपते भ्रष्टाचार के बीच आगे बढ़ते हुए भारत को सत्ता के बहुत करीब से देखा है. उनकी इस बात से कोई भी असहमत नहीं हो सकता है कि देश में जनता ही सर्वोपरि है. लोकतंत्र में व्याप्त बुराइयों से लड़ने के लिए क्या मौजूदा संविधान में विभिन्न संस्थाओं को दिए गए अधिकारों का उल्लंघन करके कुछ भी कह कर अराजकता फैलाये जाने को देश की लड़ाई कहा जा सकता है ? जब हमारा संवैधानिक ढाचा इतना मज़बूत हैं तो हमें उस पर पूरा भरोसा करना ही चाहिए और सामने आने वाली चुनौतियों से नियमपूर्वक लड़ना चाहिए. आन्दोलनों से जनता को जगाया जा सकता है पर धर्म, जाति और वर्ग को ध्यान में रखकर वोट देने वाली जनता से आख़िर यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह अच्छे उम्मीदवारों को अपने प्रतिनिधि के रूप में चुन सकती है ?  
         संबोधन में उन्होंने अन्ना या रामदेव के आन्दोलन का नाम लिए बिना ही जिस तरह से यह कहा कि आंदोलनों का माध्यम से जनता के गुस्से को बदलाव के रूप में लिया जा सकता है पर किसी कमी के कारण देश के संवैधनिक ढांचे पर खुलेआम इस तरह से प्रहार करके आख़िर क्या पाया जा सकता है वह बिलकुल ठीक है क्योंकि जिस तरह का कानून अन्ना या रामदेव मांग रहे हैं वह बनाना किसी एक राजनैतिक दल के बस की बात नहीं है इसके लिए पूरे राजनैतिक तंत्र को विश्वास और संवाद में लिए जाने की आवश्यकता है ? यह सही है कि आज देश में भ्रष्टाचार बहुत बड़ी समस्या बन चुका है पर क्या भ्रष्टाचार से निपटने का एक ही रास्ता बचा है कि केवल संसद और नेताओं को इसके लिए कुछ भी कहना शुरू कर दिया जाये ? आज देश में किस जगह पर ईमानदारी बची है इसका आत्म विश्लेषण हम भारतीयों को ही करना पड़ेगा क्योंकि किसी बात के लिए सड़कों पर उतरना लोकतंत्र की मजबूती के लिए अच्छा है पर किसी संवैधानिक संस्था के वजूद पर ही सवाल खड़े करने से आखिर कौन सी दिशा में देश को आगे ले जाया जा सकता है ? जब तक हमारे दिल में देश के प्रति श्रद्धा और विश्वास नहीं रहेगा तब तक हम इसी तरह से विभिन्न समस्याओं के साथ आगे बढ़ते रहेंगें.
          देश में कौन सी संस्था या वर्ग ठीक ढंग से काम कर रहा है और आख़िर उनमें इतना बड़ा परिवर्तन कैसे आ गया है या सोचने का विषय है ? अगर देश की विधायिका पर इतने आरोप हैं तो क्या कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस इससे अछूते हैं ? किरण बेदी के पुलिस विभाग, केजरीवाल के आयकर विभाग अन्ना की तरह सामाजिक सरोकारों से जुड़े अन्य संगठनों के साथ देश में कौन सा विभाग सही ढंग से काम कर रहा है ? इसके पीछे जो कारण सबसे महत्वपूर्ण है वह यही है कि आज हमारी नैतिकता का पतन हो रहा है जब तक देश नागरिकों के नैतिक स्तर में बदलाव नहीं लाया जायेगा तब तक ज़मीनी स्तर पर बदलाव नहीं दिखेगा. क्या देश में पूरा राजनैतिक तंत्र उतना ख़राब है जितना आन्दोलन करने वाले विभिन्न संगठनों को लगता है ? देश के भ्रष्ट नेताओं को तो मलाई खाने की आदत पड़ चुकी है जिस कारण से वहां पर भ्रष्टाचार की गुंजाईश सबसे अधिक है. आज देश को दिल्ली में आन्दोलन करने वाले कुछ हज़ार लोगों से अधिक उन लोगों की ज़रुरत है जो अपने अपने घरों के आस पास सत्य के बल पर भ्रष्टाचार को रोकने का काम कर सकें क्योंकि सरकारें बदलने से अधिकारी नहीं बदले जा सकते हैं पर जनता के दबाव के आगे ज़मीनी स्तर पर भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कारगर कदम तो उठाये ही जा सकते हैं.     
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