मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

असीम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

                           मुंबई पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये गए कार्टूनिस्ट असीम को लेकर एक भूचाल सा आया हुआ है और सभी इस बात पर बहस करने में लगे हुए हैं कि असीम को हिरासत में लिए जाना एक तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है. यहाँ पर एक बात पर सबसे पहले विचार किये जाने की ज़रुरत है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके उल्लंघन की सीमा में क्या अंतर है क्योंकि जो कुछ असीम के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है वही देश के प्रतीक चिन्ह को अपने कार्टून में शामिल किये जाने से अधिकांश लोगों के लिए बर्दाश्त के बाहर है ? जितनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देश में सभी को मिली हुई है और उसका जिस हद तक दुरूपयोग किया जा रहा है उससे यही लगता है कि हमें आज भी यह भेद करना नहीं आया है कि हमारी स्वतंत्रता केवल हमारी सीमा में ही होती है न कि दूसरे के अधिकार क्षेत्र में ? देश के सभी दलों के नेताओं से जनता त्रस्त है पर इस तरह से उन नेताओं पर कार्टून बनाने के स्थान पर जिस तरह से राजकीय चिन्ह पर कार्टून बनाया गया वह पूरी तरह से ग़लत है किसी भी नेता की कारगुजारी को दिखाने के लिए इस तरह से हमारे प्रतीकों की प्रतिष्ठा पर आंच क्यों आने दी जाये ? नेता का क़द कभी भी राष्ट्र से ऊपर नहीं हो सकता है और इस बात को सभी को मानना भी चाहिए व्यक्ति का विरोध ठीक है पर राष्ट्रीय चिन्हों का प्रतीकात्मक प्रदर्शन उचित नहीं कहा जा सकता है.
                        देश में आज इस बात पर भी बहुत बवाल होने लगा है कि सोशल मीडिया की आज़ादी को भी सरकार कुचलना चाहती है पर क्या वास्तव में ऐसा है ? सरकार को भी पता है कि आज के समय में यह एक बहुत बड़ा सामाजिक हथियार बनकर आम लोगों के पास पहुँच चुका है तो इस स्थिति में कोई भी सरकार इस तरह के क़दमों को उठाने से पहले १० बार अवश्य ही विचार करेगी. जिन लोगों को यह अभिव्यक्ति का साधन लगता है ज़रा वे किसी भी विवादित विषय पर किसी भी समाचार पत्र की वेबसाईट या ब्लॉग में लेखों को पढ़कर देखें वहां पर हर मुद्दे पर कितने तथाकथित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार सलीके से अभद्रता कर रहे हैं. क्या मतभिन्नता को अभिव्यक्ति की आज़ादी से जोड़कर अपनी बात को कहने के लिए किसी को भी गालियाँ दी जा सकती हैं ? क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी यही है कि दूसरों के धर्म और मान्यताओं पर अश्लील और आपत्तिजनक टिप्पणियां सार्वजनिक रूप से की जाएँ और यह प्रदर्शित किया जाये कि वे और उनका मत ही सर्वश्रेष्ठ हैं ? या तो इस अभिव्यक्ति की आज़ादी के पैरोकारों को यह पता ही नहीं है कि लोग किस हद तक मर्यादाओं को ताक़ पर रखकर इन स्थानों पर अपनी अभिव्यक्ति को सुर दे रहे हैं या फिर वे जानकर इससे अनजान बने रहना चाहते हैं ? अपनी सुविधा के अनुसार अभिव्यक्ति को स्वीकारने और उसका विरोध करने से समाज का कुछ भी भला नहीं होने वाला है क्योंकि इस पैरोकारी नहीं मौकापरस्ती कहते हैं.
                       पिछले महीने जिस तरह से इसी सोशल मीडिया की ताक़त और दुरूपयोग के कारण ही दक्षिण भारत से पूर्वोत्तर के लोगों को पलायन के लिए धमकाया गया तब इन अभिव्यक्ति के पैरोकारों ने आगे आकर कोई उपाय नहीं किया ? क्यों क्या केवल भ्रष्टाचार से लड़कर ही पूरे देश को संभाला जायेगा या फिर कभी देश में उठने वाली इस तरह सामाजिक समस्याओं में भी सोशल मीडिया अपनी सकारात्मक भूमिका निभाने में मदद करेगा ? किसी भी नेता या दल से देश को बहुत आशाएं कभी भी नहीं रही हैं पर इस तरह से अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर लोगों का इकठ्ठा होना आख़िर क्या कहलाता है ? सोशल मीडिया की ताक़त का अंदाज़ा सभी को है पर क्या इसका दुरूपयोग रोकने के लिए भी कोई काम करना चाहेगा ? शिक्षित समाज में आज जिस तरह से बंटवारा दिखाई दे रहा है वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही है पर उसमें भी जिस तरह से हदों को पार किया जा रहा है वह समझ से परे है. कोई भी किसी दल, समूह या वर्ग का प्रतिनिधि हो सकता है पर केवल अपनी दलीय, वर्गीय निष्ठा में क्या अपनी आज़ादी के सामने दूसरों की आज़ादी का सम्मान नहीं किया जाना चाहिए ? अब यह बहस का मुद्दा हो सकता है पर हर व्यक्ति की अपनी समझ है और उस समझ के अनुसार ही किसी को भी विवाद में घसीट लेने को अब मशहूर होने के लिए एक अच्छा साधन हो सकता है पर इससे देश कि प्रतिष्ठा में चार चाँद नहीं लगने वाले हैं ?
        
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3 टिप्‍पणियां:

  1. "अब यह बहस का मुद्दा हो सकता है पर हर व्यक्ति की अपनी समझ है और उस समझ के अनुसार ही किसी को भी विवाद में घसीट लेने को अब मशहूर होने के लिए एक अच्छा साधन हो सकता है"
    सहमत...ठीक यही बात कल मैंने भी अपने ब्लॉग पर कही...

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