मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

रविवार, 2 सितंबर 2012

पलायन की वापसी

             पूर्वोत्तर राज्यों के निवासियों पर हमले की धमकी की सूचना के बाद जिस तरह से पूरे देश और खासकर दक्षिणी राज्यों से अचानक ही छात्रों और लोगों का पलायन शुरू हुआ था उस पर तो केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के प्रयासों से रोक लग गयी. साथ ही भय का माहौल समाप्त होने पर इन पलायन किये लोगों ने एक बार फिर से अपनी पुरानी जगह लौटने की मंशा दिखाई इसे पूरा करने के लिए रेलवे ने भी गुवाहाटी से बेंगलुरु तक की एक विशेष ट्रेन चलायी है जिसमें १८ शयनयान लगे हुए हैं. देखने में यह घटना छोटी हो सकती है पर इससे जहाँ देश में व्याप्त भय के माहौल को सुधारने में भारी मदद मिली हैं वहीं पूर्वोत्तर के लोगों में भी यह विश्वास फिर से पैदा हुआ है कि देश के अन्य भागों में उनके लिए कोई ख़तरा नहीं है. इस पूरी क़वायद में जहाँ दक्षिण भारत में काम करने वाले लोगों के अचानक ही चले जाने से उन प्रतिष्ठानों को दिक्कत का सामना करना पड़ा वहीं इन जाने वाले लोगों को भी कम मानसिक संताप नहीं झेलना पड़ा है. अच्छा यह है कि अब यह सब रुक गया है और सामान्य स्थिति अगले कुछ दिनों में वापस आ जाने वाली है.
            आख़िर वे कौन से कारण रहे जिस कारण लोगों का इतने बड़े पैमाने पर पलायन शुरू हुआ अब इस बात पर भी विचार किये जाने की ज़रुरत है क्योंकि जब तक हम अपनी शासन तंत्र की इन कमियों पर काबू नहीं पायेंगें इस तरह की घटनाएँ होती ही रहेंगीं. सबसे पहले हमारे ख़ुफ़िया तंत्र के नाकारा होने की बात सामने आती है कि इस तरह से इतनी बड़ी समस्या उत्पन्न होती रही और हमारा ख़ुफ़िया तंत्र केवल सोता ही रहा. इस मसले को राज्य और केंद्र के चश्मे से देखा जाना सही नहीं है क्योंकि जो कुछ भी हुआ उसमें हमारे शासन तंत्र पर भीड़ तंत्र हावी होता दिखाई दिया जबकि सभ्य समाज में भीड़ तंत्र की कोई आवश्यकता नहीं होती है. किसी भी स्तर पर अगर सामाजिक विद्वेष फ़ैलाने की कोशिशें चल रही थीं तो उनको रोकने के लिए हमारा तंत्र मुस्तैद क्यों नहीं था ? इस बात के लिए देश की दोनों बड़ी राजनैतिक पार्टियाँ बराबर की ज़िम्मेदार हैं क्योंकि एक केंद्र में तो दूसरी कर्नाटक में सत्ता सुख भोग रही है. यह एक ऐसी समस्या थी जिसका देश ने पहली बार सामना किया था और शुरुवात में हमारी सरकारें लोगों में भरोसा जगाने में पूरी तरह असफल रहीं यह भी एक सच्चाई है.
            जिस तरह से इस पूरे मसले में मोबाईल ने नफ़रत फ़ैलाने का काम किया उससे यही लगता है कि हमारे समाज में अभी उतनी परिपक्वता नहीं आई है जिससे सामाजिक समरसता को बढ़ावा मिल सके ? किसी एक समाज के ख़िलाफ़ या उस समाज में तेज़ी से चलते हुए किसी भी संदेश के बारे में हमरे ख़ुफ़िया तंत्र सोता ही रहता है जबकि इस तरह से किसी भी संदेश के एक सीमित संख्या को पार करने के बाद उस पर निगरानी करने का काम अब तो होना ही चाहिए. सरकार के संदेश भेजने पर रोक लगाने के फ़ैसले को अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला माना गया और जिस तरह से इस माध्यम से नफ़रत फ़ैलाने का कम किया गया तो क्या उससे यह सदेश नहीं जाता है कि अभी हम इन तकनीकी सुविधाओं का सही ढंग से इस्तेमाल करने के लिए परिपक्व ही नहीं हुए हैं ? देश की आन्तरिक सुरक्षा को जिस तरह से रोज़ ही ख़तरे में डालने के काम होते रहते हैं उस स्थिति में यह एक और नयी तरह की समस्या सामने आ गयी है. सरकार को देश के ख़ुफ़िया तंत्र को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सुधारना चाहिए जिससे आने वाले समय में इस तरह की समस्या देश के किसी भी भाग में न उत्पन्न हो.     
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