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मंगलवार, 25 सितंबर 2012

यूपी की संवेदनशीलता

                   आई बी की ताज़ा रिपोर्ट में केंद्र और यूपी की सरकारों से इस बात की आशंका जताई गयी है कि आने वाले समय में प्रदेश में सांप्रदायिक ताकतें अपना सर एक बार फिर से उठा सकती हैं. वैसे देखा जाये तो इस रिपोर्ट में कुछ भी नया नहीं कहा गया है क्योंकि पिछले कुछ महीनो में जिस तरह से छोटी छोटी बातों और विवादों को भी सांप्रदायिक रंग दिया गया है उसके बाद कोई भी इस बात का अंदाज़ा लगा ही सकता है कि इस तरह की शक्तियां अब यूपी को फिर से वर्ग संघर्ष में झोंकने के लिए सक्रिय हो चुकी हैं. आख़िर ऐसा क्या हुआ है जिस कारण से प्रदेश में इस तरह की शक्तियां एक बार फिर से  सक्रिय हो गयी हैं और इनको सक्रिय करने के पीछे आख़िर किन लोगों का हाथ है ? देश का नाकारा ख़ुफ़िया तंत्र अपने बूते कुछ खास हासिल नहीं कर पाता है और केवल कुछ तथ्यों के आधार पर ही काम करने की अपनी आदत के कारण भी साजिशों का समय रहते पता नहीं लगा पाता है. इस तरह की किसी भी घटना में कभी भी निष्पक्ष रूप से कोई काम नहीं किया जाता है और केवल सरकारों और नेताओं को खुश करने के लिए ही अजीब तरीक़े से काम किया जाता है. इस तरह के भेद भाव के कारण ही विभिन्न स्थानीय कारणों से अराजक और समाज विरोधी तत्वों को वैमनस्य फ़ैलाने का अवसर मिल जाता है.
          दो दशक पूर्व तक यूपी के हर थाने, कोतवाली में एक संभ्रांत नागरिकों की सूची हुआ करती थी जिसके अनुसार लोगों को बुलाकर स्थानीय मुद्दों और अन्य बड़े त्योहारों से पहले कानून व्यवस्था के बारे में विचार विमर्श किया जाता था और उनके माध्यम से कानून व्यवस्था को बहुत हद तक काबू में रखने में सहायता भी मिला करती थी. पर आज के समय में इस तरह की सूचियाँ नदारत हैं और हर व्यक्ति अपने हिसाब से काम करने में लगा हुआ है जिससे किसी विषम परिस्थिति में पुलिस को यही नहीं पता होता है कि अगर सामाजिक लोगों की बैठक बुलानी है तो उसमें किसे बुलाया जाये क्योंकि अब पुलिस को केवल उन ठेकदारों, दलालों के बारे में पता रहता है जिनके माध्यम से उन्हें ग़लत तरीके से आमदनी होती है ? पहले किसी भी छोटे मोटे विवाद के होने पर यदि पुलिस उसे सुलझा पाने में असफल रहती थी तो पीस कमेटी की बैठक बुलाई जाती थी जहाँ पर समस्या का समाधान खोजा जाता था पर अब जब इस तरह की सामजिक पुलिसिंग की अवधारणा ही यूपी से गायब हो चुकी है तो आख़िर किस तरह से लोगों के बीच पुलिस इस तरह की परिस्थिति में सामंजस्य बिठा पाए यही आज की बड़ी समस्या बन चुकी है. अब एक बार फिर से सामजिक पुलिसिंग को बढ़ावा देने की आवश्यकता है और किसी बड़ी घटना के होने के बाद इस तरह की व्यवस्था के बारे में सोचने से अच्छा है कि अभी से ही यहाँ पर अवैतनिक विशेष पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति की जाये और जो लोग स्वेच्छा से समय दे सकते हैं उनको सामजिक समरसता बढ़ाने के लिए आगे लाने का प्रयास करना ही चाहिए.
        जिस तरह से अफवाहें फैलाकर केवल कुछ घंटों में ही किसी भी गाँव, कस्बे या शहर को अराजकता के हवाले करने का चलन इधर बढ़ता जा रहा है उस परिस्थिति में तो यह और भी आवश्यक हो गया है कि प्रदेश में एक बार फिर से पीस कमेटियों को सक्रिय किया जाये और जहाँ तक संभव हो सके इसमें केवल गैर राजनैतिक लोगों को ही रखा जाये क्योंकि राजनेता कई बार अपने हितों को साधने के लिए इन कमेटियों में भी विवाद खड़े कर देते हैं और नेताओं के कारण वैसे ही देश में बहुत अधिक विवाद पहले से ही बने हुए हैं इसलिए सामजिक समरसता का यह काम केवल जनता से जुड़े हुए अन्य सामाजिक लोगों को ही सौंपा जाना चाहिए क्योंकि बात बात में पुलिस और प्रशासन पर हनक ज़माने के अवसर ढूँढने वाले नेता लोग किसी भी स्तर पर यहाँ भी गड़बड़ करने से नहीं चूकते हैं ? अखिलेश सरकार को भी यदि लम्बे समय तक प्रदेश के हित में काम करना है तो उसे भी यह देखना ही होगा कि कुछ मुद्दों पर वह पिछली मुलायम सरकारों से अलग हटकर काम करने की आदत बनाये क्योंकि सत्ता मिल जाने के बाद उसे किसी भी तरह से चलाना और समय पूरा करना एक बात है और ज़मीनी हक़ीकत को सुधारने के लिए सरकार चलाना बिलकुल दूसरी बात है पर सपा के बड़े नेताओं के बोझ से दबे हुए अखिलेश आख़िर अपने ढंग से सरकार कब चला पायेंगें इस बात का प्रदेश के साथ पूरा देश भी इंतज़ार कर रहा है पर मुलायम पर पार्टी के लोगों का इतना अधिक दबाव उन्होंने खुद ही बना रखा है कि वे या तो कुछ करना ही नहीं चाहते हैं या फिर कुछ करने की उनकी मंशा ही ख़त्म हो चुकी है.
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