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बुधवार, 26 सितंबर 2012

अधिकार या रियायत

         अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में कुरानिक स्टडीज़ के एक सेंटर के उद्घाटन के समय उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने जिस तरह से यह कहा कि मुसलमानों को रियायत नहीं अपना वाजिब हक़ माँगना चाहिए क्योंकि इससे आत्म सम्मान बढ़ता है और समाज में सभी के साथ रहने की भावना भी विकसित होती है. ठीक उसी दिन अमेरिका में अपने अंतिम अंतर्राष्ट्रीय चुनावी भाषण में बराक ओबामा ने यह कहा कि किसी व्यक्ति की घृणित मानसिकता का बदला किसी से भी नहीं लिया जा सकता है और पैगम्बर के नाम पर इस तरह की अमेरिका विरोधी हिंसा को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा. इन दोनों घटनाक्रमों में अगर देखा जाये तो दुनिया के अलग अलग भागों में मुसलमानों को संदेश देने की कोशिश की गयी है कि उन्हें अब इस तरह के व्यवहार से परहेज़ करना चाहिए जिससे पूरे इस्लाम की छवि को धक्का लगता है और उसके अनुयायियों की छवि कट्टर लोगों के रूप में बनती है. इस छवि को सुधारने का ज़िम्मा भी अब मुसलमानों को ही उठाना होगा क्योंकि मुसलमानों के प्रगतिशील होने से सबसे ज्यादा लाभ उनका ही होने वाला है भारत में मुसलमानों की जितनी अच्छी स्थिति है शायद वैसी दुनिया के किसी भी हिस्से में नहीं है फिर भी आम मुसलमान मुख्य धारा से कटा हुआ क्यों नज़र आता है ?
              अंसारी ने जहाँ एएमयू के संस्थापक सर सैय्यद के सपने पर जोर दिया कि उन्होंने मुसलमानों में जिस प्रगतिशीलता के बारे में सोचकर इतना बड़ा संस्थान स्थापित करने के बारे में सोचा था आज हम उनके इस उद्देश्य से भटक से गए हैं. धार्मिक मूल्यों के साथ मुसलमानों में आधुनिकता का समावेश भी होना चाहिए जिससे वे प्रगतिशील समाज के साथ जुड़ाव महसूस कर सके. अंसारी का यह कहना भी बिलकुल सही है कि मुसलमानों को आत्म निरीक्षण की ज़रुरत है कि वे किस तरह से विभिन्न समुदायों वाले समाज में किस तरह से रहें क्योंकि आज पूरा विश्व जिस तरह से एक गाँव में बदलता जा रहा है उसमें सभी की सभी तक पहुँच बहुत आसान हो गयी है. ऐसे में सामजिक सहिष्णुता के मायने भी बदल गए हैं क्योंकि पहले जो ख़बरें आसानी से आम लोगों तक नहीं पहुँच पाती थीं अब संचार के बेहतर साधनों से यह पूरी दुनिया में बहुत जल्दी ही फ़ैल जाती हैं. किसी भी तरह की आज़ादी का उपयोग पूरे समाज की भलाई में करना चाहिए न की उसको किसी ऐसे आवरण में बंद कर देना चाहिए जिसके माध्यम से समाज से कटाव शुरू हो जाये. अब वह समय शुरू हो चुका है कि यदि अब भी मुसलमानों ने उचित बदलाव को अपने में समाहित नहीं तो दूसरे समुदायों के भी सामान मानसिकता के लोग अपने समुदाय को मुसलमानों के ख़िलाफ़ उकसाने में सफल हो जायेंगें जिसका सबसे अधिक असर आम मुसलमानों पर ही पड़ने वाला है.
          आज मुसलमानों को वास्तव में हामिद अंसारी जैसे विचारकों की ज़रुरत है जो भले ही कुछ बदलाव न कर पायें पर ऊंचे पदों पर होने के कारण उनकी तरफ़ से कहे गए किसी भी वक्तव्य को कम से कम कुछ लोग सुनें तो ? किसी भी समाज में सबसे प्रभावी और उचित बदलाव समाज के अन्दर से ही हो सकता है क्योंकि किसी अन्य के द्वारा सुझाये गये किसी भी प्रस्ताव से उस समाज को लगने लगता है कि उनके अधिकारों को कम किया जा रहा है. हामिद अंसारी ने जिस तरह से अधिकारों की बात की है उसी तरह से उन्होंने बदलाव की बात भी की है क्योंकि जब समाज में सहिष्णुता बढ़ाये जाने की बात की जाएगी तो केवल एक पक्ष के करने से कुछ भी नहीं होने वाला है. अधिकारों की मांग तब अधिक फलदायी होती है जब उसमें कर्तव्यों का समावेश किया जाता है. अमेरिका हर बात अपने लाभ को सोचकर ही करता है इसलिए उसकी सोच का भारत में कोई स्थान नहीं है भारत के इस्लामी संस्थानों ने पूरी दुनिया को अच्छे विचारक दिए हैं ऐसे में भारत के सभी समाजों को विकसित होने देने की धारणा का ज़मीनी स्वरुप दिखाई देता है. बदलाव के आह्वाहन के बाद भी अगर मुसलमानों द्वारा इस तरह से नहीं सोचा जाता है तो उनकी आने वाली पीढियां इस बात के लिए दोषी अवश्य ही ठहराएंगी की अवसर होने के बाद भी उन्होंने बदलाव के बारे में कुछ नहीं सोचा.  
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