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गुरुवार, 27 सितंबर 2012

कश्मीर और राजनीति

          जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह ने जिस तरह से आतंकियों को ललकारते हुए कहा है कि अगर उनमें दम है तो वे उन पर हमला करके दिखाएँ उससे यही लगता है कि राजनेता हमेशा से ही ज़मीनी हकीक़त को समझने में विफल हो जाते हैं या फिर उनमें इतनी इच्छा शक्ति ही नहीं होती है कि वे आम जनता के लिए कुछ ठोस कदम उठा सकें ? पिछले वर्ष हुए ग्राम सभाओं के चुनावों में जिस तरह से आम ग्रामीण कश्मीरी ने हिस्सा लिया और उत्साह पूर्वक चुनावों का सञ्चालन किया गया उसके बाद आतंकियों के लिए वहां पर आसानी से पैर जमाना मुश्किल होने लगा था. ग्रामीण विकास के जो किरण कभी भी कश्मीर के गांवों तक नहीं पहुंची थी उसके पहुँचने से आम लोगों को भी भारतीय नीतियों के बारे में जानकारी होने लगी थी. इस समस्या का समाधान करने के लिए आतंकियों ने दूर दराज़ के इलाक़ों में रहने वाले पंचों पर दबाव बनाकर उनसे इस्तीफ़े दिलवाने शुरू कर दिए जिससे पूरे देश और दुनिया में यह संदेश जाये कि कश्मीर में हालात वैसे नहीं है जैसा लोग सोचते हैं. इस पूरे मसले में कहीं न कहीं राज्य सरकार ही पूरी तरह से दोषी है क्योंकि इन चुनावों को एक वर्ष बीत जाने के बाद भी वह आम लोगों में इस विश्वास की बहाली नहीं कर पायी है कि वे उसकी सत्ता में सुरक्षित हैं. आम लोग चुनावों में भाग लेकर ही अपनी मंशा ज़ाहिर कर सकते थे और उन्होंने ठीक वैसा ही किया पर राज्य सरकार पूरी तरह से इन मसलों पर ध्यान देने के स्थान पर अन्य कामों में ही व्यस्त रही.
               उमर का यह कहना कि आतंकी उन पर हमला करके दिखाएँ एक तरह से बचकाना है क्योंकि एक राज्य सत्ता को इस तरह से कभी भी आतंकियों को ललकारना नहीं चाहिए पर इससे घाटी में उनकी पार्टी के वोट बढ़ते हैं इसलिए नेता कभी भी कुछ भी कह देते हैं. उन्हें भी पता है कि उच्च सुरक्षा में रहने के कारण उन पर हमला करना उतना आसान नहीं है जितना बिना सुरक्षा में रह रहे लोगों पर करना आसान होता है.अब इस मसले पर राज्य सरकार को सुरक्षा की चिंता हुई है और उसे लगने लगा है कि इन स्थानों पर सुरक्षा को बढ़ाये जाने की आवश्यकता है जिसके लिए १ अक्टूबर को एक बैठक भी बुलाई गयी है. पिछले वर्ष हालात के सामान्य होने और सुरक्षा बलों की अधिकता के कारण अपने वोट कटने के डर से यही उमर अब्दुल्लाह कह रहे थे कि घाटी से सुरक्षा बलों को वापस किया जाना चाहिए और कुछ इलाक़ों से सुरक्षा बलों को हटाया भी गया था. नेताओं को कभी भी सही स्थिति का कोई अंदाज़ा नहीं होता है पिछले वर्ष जिस तरह से केंद्र पर दबाव बनाया गया था और उसके बाद इसे प्रतिष्ठा का विषय भी बना लिया गया उसकी कश्मीर के परिप्रेक्ष्य में कोई आवश्यकता नहीं थी. सुरक्षा सम्बन्धी सभी फैसले लेने का अधिकार केवल एकीकृत कमान के पास ही होना चाहिए जो कि समय समय पर सुरक्षा स्थिति की समीक्षा करने के बाद ही कोई निर्णय लेने में सक्षम हो और उसका राज्य सरकार से कोई मतलब नहीं होना चाहिए.
            कश्मीर में आम लोग आतंकियों के तंत्र से ऊब चुके है इसलिए उन्होंने पंचायती चुनावों में इस आशा के साथ वोट डाले थे कि विकास की किरण उनके यहाँ तक भी पहुँच जाएगी पर नेताओं के स्वार्थों के कारण मुश्किल से जुटाई गयी इस शांति और साहस को गँवा देना अब कश्मीर की नियति बन चुकी है. कश्मीर में जिस भी जगह से सुरक्षा बलों को हटाया जाता है वहां पर आतंकी फिर से अपने मोड्यूल तैयार कर लेते हैं और हमारा ख़ुफ़िया तंत्र सोता ही रहता है ऐसी स्थिति में आख़िर कौन और किस तरह से वास्तविक स्थिति का आंकलन कर पायेगा ? अब आने वाले समय में सुरक्षा बलों को हटाने पर वहां पर सामजिक पुलिसिंग को बढ़ावा देना चाहिए और यह भी नागरिकों को बात देना चाहिए कि अगर उस इलाक़े में आतंकियों को दोबारा पनाह मिली तो पूरे क्षेत्र के लोगों को भी इसके लिए आर्थिक और सामजिक दंड दिया जायेगा जिससे आम लोग भी सुरक्षा चिंताओं से रूबरू हो सकते हैं. आम लोग भले ही आतंकियों से इत्तेफ़ाक रखते हों पर लगातार सुरक्षा बलों की पूछताछ और आतंकियों के दबाव में जीने के कारण आज वे भी खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं. भारतीय कश्मीर में जिस तरह से सरकार आम लोगों के लिए चिंतित रहती है वैसा पाक के कब्ज़े वाले कश्मीर में नहीं है इसलिए आम लोगों की सुरक्षा चिंताओं को देखते हुए केवल त्वरित लाभ के लिए अब कश्मीर में सक्रिय सभी राजनैतिक दलों को इस मुद्दे पर सहमत होना ही होगा वर्ना नेता तो सुरक्षित ही रहेंगें और आम जनता आतंकियों के दबाव में काम करती रहेगी.
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