मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

आईटी एक्ट धारा ६६ से ७९ तक

                     केंद्र सरकार की पहल पर जिस तरह से गुरुवार को साइबर रेगुलेशन एडवाइजरी कमिटी (सीआरएसी) की बैठक संचार भवन में होने जा रही है उससे आईटी एक्ट की काफी समय से विवादित बहुचर्चित धारा ६६ के साथ धारा ७९ पर भी चर्चा किये जाने की सम्भावना है. इसके बाद केंद्र सरकार धारा ६६ के बारे में कुछ अंतरिम दिशा निर्देश भी जारी कर सकती है जिससे कई बार अतिउत्साह में उठाये गए क़दमों के कारण सरकारों को परेशानी न झेलनी पड़े. किसी भी कानून की व्याख्या करने के अपने अपने नियम होते हैं क्योंकि वही कानून सबके लिए होते हैं पर वकील अपनी कुशलता से उनकी ऐसी व्याख्या सामने लेकर आते हैं कि उनमें भी कमियां नज़र आने लगती हैं. पिछले कुछ समय से यह धारा विवादों में आती रही है उसके बाद इसकी समीक्षा करनी बहुत आवश्यक है पर किसी भी तरह के पूर्ण संशोधन के लिए बजट सत्र तक प्रतीक्षा करने पड़ती और तब तक इसके अंतर्गत पता नहीं कितने लोगों को पकड़ा जा सकता है सिर्फ इस तरह की परेशानियों से बचने के लिए ही इन नियमों पर विचार किये जाने पर सहमति हुई है. आज के युग में तेज़ी से बढती हुई संचार आवश्यकताओं ने जहाँ दुनिया में नयी तेज़ी ला दी है वहीं इसके दुरूपयोग से इनसे निपटने के लिए नए कानूनों की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है.
         कोई भी विधेयक अपने आप में सम्पूर्ण नहीं हो सकता है क्योंकि समय के साथ आवश्यकताओं में परिवर्तन होता रहता है और एक समय में कारगर लगने वाले कानून समय के साथ अपनी प्रासंगिकता खोने लगते हैं ऐसे में केवल सरकार ही सही कदम उठाकर इन नियमों में परिवर्तन कर सकती है. देश का संविधान इसके लिए पूरी तरह से अनुमति देता है पर हमारे नेताओं के पास शायद सदन में हंगामा करने के अतिरिक्त कोई काम होता ही नहीं है जिससे इन ज़रूरी विधायी कामों को भी समय रहते निपटाया जा सके ? किसी भी देश की आवश्यकताएं समय के अनुसार बदलती रहती हैं और समय के साथ इन आवश्यकताओं के अनुरूप नियमों में संशोधन करना ही हमारी विधायिका का काम है पर आज पूरी विधायिका देश के कानून को तर्क सम्मत बनाने के स्थान पर एक दूसरे की टांग खींचने में लगी हुई है. क्या कारण है कि इस विवादित धारा पर संसद के सत्र के समय भी संचार भवन में विचार किया जा रहा है और सरकार संभवतः वहीं से कुछ तय भी कर लेगी भले ही संसद की अवमानना से बचने के लिए वह सदन के पटल पर सूचना के तौर पर इन निर्देशों को रख कर अपनी औपचारिकता पूरी कर ले.
          अच्छा होता कि इन संशोधनों को विशेषज्ञों की समिति में विचार करने के बाद संसद में इस पर बहस करायी जाती जिससे आम लोगों की अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़े इस मुद्दे को पूरी निष्ठा के साथ देखा जाता पर आज के समय में जिस तरह से विधायी काम किये जाने लगे हैं उनसे और क्या उम्मीद की जा सकती है ? सरकारें सदन में विपक्ष का सामना करना ही नहीं चाहती हैं और विपक्ष भी इस तरह से हंगामा करके सरकार को विभिन्न मुद्दों पर घेरने के अपने अधिकारों और अवसरों को बेकार जाने देता है. ऐसी स्थिति में सरकार यह कहकर अपना पीछा छुड़ा सकती है कि जब सदन चल ही नहीं रहा था तो महत्वपूर्ण मुद्दा होने के कारण उसने आम लोगों के हित में ऐसा किया है और पूरे विमर्श को किसी निर्देश जारी करने से पहले सदन में रख दिया जायेगा पर इससे आम लोगों को कुछ राहत तो मिल सकती है पर जिस काम के लिए देश में एक संसद है और जिस के परिचालन पर आम जनता का करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाया जाता है फिर उसकी क्या आवश्यकता है ? अब देश के राजनैतिक तंत्र को अपने आप में बदलाव लाने के लिए तैयार होना ही होगा क्योंकि आज़ादी के सातवें दशक में अब यह बहाना नहीं चल सकता है कि हमारा लोकतंत्र अभी भी विकसित हो रहा है हमारी जनता और लोकतंत्र तो पूरी तरह से परिपक्व हैं और इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि संसद तक पहुँचने वाले ये चेहरे कब परिपक्व हो पायेगें ?
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