मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

पेट्रोलियम नीति ?

                             देश की आर्थिक सेहत को पटरी पर लौटाने के लिए जिस तरह से सरकार अपने को बचाते हुए आने वाले समय में कम से कम राजनैतिक नुकसान के साथ आम लोगों तक पेट्रोलियम पदार्थों की पहुँच निर्बाध रखने की कोशिशें कर रही है उसका अब सही मायनों में राजनीति से हटकर समर्थन करने की ज़रुरत है. यह बात पूरा देश जानता है कि हम अपनी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए पूरी तरह से ही दूसरों पर निर्भर हैं और जब हमारे पास यह ऊर्जा है ही नहीं और हमें इसे विदेशों से ही आयात करना है तो फिर इसमें एक दीर्घकालिक नीति की अविलम्ब आवश्यकता है जिसके लिए अब देश के नेताओं और जनता को तैयार होना ही होगा. केवल राजनैतिक लाभ के लिए ही मूल्य वृद्धि का विरोध किये जाने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि जब पूरी दुनिया में मंहगाई बढ़ रही है तो उसे भारत में कैसे रोक कर रखा जा सकता है. आज देश को अपनी दीर्घकालिक नीतियों के अनुरूप एक नयी पेट्रोलियम नीति की आवश्यकता है क्योंकि आज जब तक हमारी इन लाभ देती कम्पनियों के पास अनुसंधान और तेल खोजने के लिए धन नहीं होगा तब तक वे किस तरह से दुनिया की चुनिन्दा कम्पनियों से इस क्षेत्र में स्पर्धा कर अपनी भविष्य की ज़रूरतों को पूरा कर पाएंगीं ?
                               इस क्षेत्र में अब घटिया राजनीति के स्थान पर अब लम्बे समय तक चलने वाली कारगर नीतियों की आवश्यकता है इसके लिए अब सभी दलों को साथ में बैठना ही होगा क्योंकि आज कोई सरकार चला रहा है तो कल यहाँ पर कोई अन्य भी हो सकता है फिर उन परिस्थितयों को समझने के स्थान पर केवल विरोध करने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है ? सबसे पहले सरकार को केरोसिन पर सब्सिडी के बारे में विचार किये जाने की आवश्यकता पर सोचना चाहिए क्योंकि गरीबों के ईंधन के रूप में कुख्यात इस केरोसिन ने ही भारतीय तेल नीति का तेल निकाल रखा है. कोई भी प्रदेश सरकार इस बात का दावा नहीं कर सकती है कि उसके यहाँ पर केरोसिन पूरी मात्रा में उन लोगों तक पहुँचाया जाता है जिनके लिए ही सरकार इन्हें सस्ता रखने के लिए पेट्रोल पर दबाव बनाकर रखती है ? तकनीकी तौर पर पेट्रोल, डीज़ल और केरोसिन की उत्पादन लागत में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं होता है पर भारत में राजनैतिक कारणों से लोगों को यह लगता है कि जैसे यह पेट्रोल के साथ फ्री में मिलने वाली वस्तु है ? केरोसिन के वितरण में जितने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार ने अपने पैर जमा रखे हैं उसके कारण भी इस पर दी जाने वाली सब्सिडी कम नहीं हो पाती है. पूरे देश में जिस तरह से इसे बड़े लाभ के लिए कालाबाज़ारी कर गरीबों का हक़ मारा जा रहा है और इसे डीज़ल में मिलाया जा रहा है उसके पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव के बारे में कभी सोचा भी जाता है ?
                              आज सबसे बड़ी ज़रुरत इस बात की है कि केरोसिन के दामों को बाज़ार के सही स्तर पर लाया जाये जिससे जहाँ डीज़ल और पेट्रोल पर पड़ने वाला दबाव भी कम होगा वहीं इस क्षेत्र में फैले हुए भ्रष्टाचार में भी कमी ही आएगी क्योंकि जब इसको डीज़ल में मिलाने का खर्च इनके अंतर पर भारी पड़ने लगेगा तो स्वतः ही यह मिलावट का खेल बंद हो जायेगा. हर क्षेत्र में हर तरफ से सब्सिडी की वक़ालत करने वाले भी इस बारे में कोई विचार करना ही नहीं चाहते हैं. आज के आंकड़ों के अनुसार यदि केरोसिन की ३२ रूपये से अधिक की सब्सिडी समाप्त कर दी जाये तो प्रति लीटर ३२ रूपये में से १० रूपये तक डीज़ल पर घटाए भी जा सकते हैं तो फिर मंहगाई बढ़ने का रोना रोने वालों के पास और क्या जवाब बचेगा कि क्यों न इनके दामों को भी बाज़ार के अनुरूप तर्क संगत करने की दिशा में क़दम क्यों न बढ़ाये जाएँ ? केरोसिन को भी डीज़ल की तरह प्रतिबन्ध मुक्त कर खुले बाज़ार में बेचने की अनुमति दे दी जानी चाहिए जिससे लोगों को यह आसानी से आवश्यकता के अनुरूप उपलब्ध हो सके और इस क्षेत्र में अनुसंधान के लिए सरकार को और अधिक धन उपलब्ध करना जिससे केरोसिन के उपयोग को एक ईंधन के रूप में बढ़ावा भी मिल सके पर केवल राजनैतिक हित लाभ के लिए भारत में उठाये जाने वाले क़दमों से पीछे हटने का साहस अब किसी न किसी सरकार को देश हित में तो दिखाना ही होगा वरना आने वाले दशकों में सरकारी तेल कम्पनियों के दीवालिया हो जाने पर लोग चिल्लाते रहेंगें और निजी क्षेत्र की कम्पनियां अपने मनमाने स्तर पर पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें वसूलने लगेंगीं.             
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