मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

रविवार, 20 जनवरी 2013

राजनैतिक सपने और हक़ीक़त

                        जयपुर के चिंतन शिविर में जिस तरह से सोनिया गाँधी ने पार्टी के बिखरते वोट बैंक और भविष्य में सामने आने वाली चुनैतियों के बारे में खुली चर्चा शुरू की और पार्टी के लोगों का ध्यान इस मुद्दे पर दिलाया उससे यही लगता है कि पूरे देश में राजनीति अपने संक्रमण के दौर से गुज़र रही है. अभी तक जिस आत्मविश्वास के साथ राजग २०१४ में सरकार बनाने की बातें किया करता था अब उसे भी ज़मीनी परिस्थितियों का एहसास हो गया है और साथ ही हताशा में जी रहे संप्रग को एक बार फिर से यह उम्मीद लगने लगी है कि उसकी मुख्य घटक दल कांग्रेस एक बार फिर से सबसे बड़े राजनैतिक दल के रूप में उभर सकती है. वर्तमान परिस्थितयों में कांग्रेस जहाँ देश का ध्यान अन्य मुद्दों से हटाकर नए मुद्दों की बात करना चाहती है वहीं भाजपा में अभी तक मोदी के नाम पर व्यापक असहमति होने के बाद भी अब उनका नाम पीएम के लिए आगे किया जाना शुरू किया जा चुका है. भाजपा के इस दांव के समर्थन में जहाँ उसके बड़े नेता ही मन से साथ नहीं हैं वहीं मोदी जैसे विशुद्ध राजनेता के लिए यह समझना भी कठिन नहीं है कि २०१४ में उनके लिए अभी कुछ जल्दी ही है इसलिए वे अभी अगले चुनावों तक प्रतीक्षा करना चाहेंगें क्योंकि तब तक भाजपा में नेतृत्व का संकट काफी हद तक ख़ुद ही समाप्त हो जायेगा.
                सोनिया ने जिस तरह से पार्टी की कमियों को उजागर किया और वे इसे दूर करने के लिए चिंतित भी दिखाई दीं उससे देश के भविष्य के राजनैतिक परिदृश्य को समझने में आसानी हो सकती है क्योंकि भाजपा भी अब सुशासन और ज़िम्मेदारी भरी सरकारों की बातें करने में विश्वास कर रही है और उसके कई क्षेत्रीय नेता अपनी क्षमता के अनुरूप प्रदर्शन करके पार्टी को अपने प्रदेशों में अपने दम पर आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं. ज़िम्मेदारी को समझने वाले और जनता की आकांक्षाओं पर खरे उतरने वाले सभी नेताओं को जनता द्वारा नियमित तौर से चुना ही जा रहा है जिससे अंत में जनता को लाभ पहुँच रहा है. ठीक इसी तरह से काम न कर पाने वाली सरकारों को प्रदर्शन के अनुरूप दंड देने की प्रक्रिया भी जनता द्वारा चलायी जाती रहती है. अब वह समय नहीं रह गया है जिसमें यह कहा जाए कि सरकारें इसलिए बदल जाती हैं क्योंकि वे सभी लोगों की आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतर पाती हैं बल्कि अब यह समय आ गया है जिसमें यह कहा जा सकता है कि वही सरकारें अपना अस्तित्व बचा पाती हैं जिनसे लोगों की आकांक्षाएं पूरी होती हैं. जनता को कमतर समझने वाले नेताओं को अब कुछ भी करने की छूट जनता द्वारा नहीं दी जा रही है.
               यह भी सही है कि संप्रग-१ के मुकाबले संप्रग-२ का रिपोर्ट कार्ड कुछ ठीक नहीं है और जिस तरह से गठबंधन की राजनीति ने देश के शीर्ष फ़ैसलों पर अपनी काली छाया डालनी शुरू कर दी है उससे भी उसके लिए सब कुछ ठीक नहीं रहने वाला है सोनिया का यह कहना बिलकुल ठीक है कि सरकार और पार्टी की छवि सुधारने की ज़रुरत है पर क्या सुविधाओं के आदी हो चुके कांग्रेसी नेता अब ज़मीनी स्तर पर कुछ बदलाव करने के बारे में सोचना शुरू कर पायेंगें ? नेतृत्व चाहे सोनिया के पास हो या राहुल के जब तक कार्यकर्त्ता और नेता नहीं बदलेंगें तब तक स्थितियां बदलने वाली नहीं हैं. भाजपा में अभी तक लोग यह मान कर चल रहे थे कि संप्रग का बोझ खुद ही उतना हो जायेगा कि वह अपने को संभाल नहीं पायेगा इसी उम्मीद में उसने अपना वह काम भी ठीक ढंग से नहीं किया जो उसे मुख्य विपक्षी दल होने के नाते करना चाहिए था. यदि सरकार के नेता के रूप में मनमोहन विफल रहे हैं तो नेता विरोधी दल के रूप में सुषमा को भी पास होने लायक अंक नहीं दिए जा सकते हैं. यह सही है कि मनमोहन जितना कम बोलते हैं वह उनका अपना रूप है पर मुखर होकर अपनी बात रखने वाली सुषमा भी इस स्तर पर अपने पद से न्याय नहीं कर पायीं. अब सोशल साइट्स पर सक्रिय भाजपा के वे समर्थक जो अब तक संप्रग सरकार को उखाड़ फेंकने की बातें किया करते थे अब कहीं न कहीं इस तरह की बातें करने लगे हैं कि कहीं फिर से कांग्रेसी ही सरकार न बना लें ? क्या इस तरह की परिस्थिति कार्यकर्ताओं और देश के लिए अच्छी कही जा सकती है कभी भी नहीं क्योंकि जितने मज़बूत और सही काम करने वाले देश के राजनैतिक दल होंगें देश की सरकारें उतनी ही मज़बूती और कुशलता से चल पाएंगीं.      
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

2 टिप्‍पणियां:

  1. इस तरह के चिंतन शिविरों से निकली बातों को दूसरे ही दिन हवा होते देश ने देखा है इसलिए ना तो देश और ना ही पार्टी ऐसे चिंतन शिविरों से ज्यादा आशा रखते हैं खुद सोनिया के नेतृत्व में हुए इस तरह के तीसरे चिंतन शिविर को में देख रहा हूँ पिछले वाले दो चिंतन शिविरों से निकली बातें जिस तरह हवा हवाई हो गयी इस बार भी उससे कुछ अलग होने वाला नहीं है !!

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