मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

अभिव्यक्ति और राजनीति

                                             कमल हासन की रिलीज़ को तैयार फिल्म विश्वरूपम ने देश में एक बार फिर से उसी बात की बहस शुरू कर दी है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी और दूसरों की मान्यताओं पर हमले को आख़िर किस सीमा रेखा से बाँधा जाए ? अभी तक पूरे देश में जिस तरह से विभिन्न मुद्दों पर इस तरह के विवाद लम्बे समय से ही खड़े किए जाते रहे हैं उस परिस्थति में क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोगों के इस तरह के उग्र होने की बात पर पुनः विचार किए जाने की आवश्यकता नहीं है ? यह एक ऐसा विवादित मुद्दा हमेशा से ही रहा है जिसमें कुछ लोगों को यह अभिव्यक्ति की आज़ादी के तहत अपनी बात रखने के मंच जैसा लगता है तो वहीं कुछ लोगों को ऐसा लगता है जैसे उनके अधिकारों, मान्यताओं पर जानबूझकर प्रहार किए जा रहे हैं ? देश में जिस तरह से हर बात पर राजनीति की जाती है यह केवल उसी का एक घिनौना चेहरा भर है जिसके माध्यम से लोग अपनी भड़ास निकालने का काम किया करते हैं. राजनीति ने देश में पहले से ही विभिन्न मुद्दों पर अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए बहुत सारी कड़वाहट घोलने में कोई कमी नहीं रखी है तो इस तरह के मुद्दों पर राजनेता अपनी भूमिका को सीमति ही रखने का काम करते रहें तो ज्यादा अच्छा ही होगा.
                                             कलाकार को कला के माध्यम से अपनी बात रखने का पूरा हक़ है और कला के माध्यम से हमेशा से ही सामजिक बुराइयों और कुरीतियों पर प्रहार किए ही जाते रहे हैं पर देश में पूरे मसले को जिस तरह से राजनैतिक रंग देना शुरू कर दिया जाता है उसका कोई औचित्य नहीं है क्योंकि जब कला को इस तरह से किसी सीमा में बांधा जाता है तो वह अपने मूल स्वरुप को खो ही देती है पर साथ ही किसी ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर कुछ भी करने से पहले कलाकारों को भी इस बात पर विचार अवश्य ही कर लेना चाहिए कि इससे आने वाले समय में इसका समाज पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा ? भारत जैसे विविधता भरे देश में जहाँ पर संविधान कलाकारों को इस तरह की अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है वहीं वह उनसे यह भी अपेक्षा रखता है कि वे लोगों की भावनाओं की भी कद्र करें. आम जनता को इस तरह के मुद्दे से कोई मतलब नहीं होता है फिर भी नेता लोग अपने स्तर से कुछ वोट बटोरने की नीति के तहत यह प्रदर्शित करने में लगे रहते हैं कि उन्होंने आज तक किसी भी विवादित मसले पर किसी को कुछ बोलने नहीं दिया है ?
                                            कमल हासन जैसे कलाकारों का यह यह कहना भी उतना ही ग़लत है कि वे भारत छोड़कर कहीं और चले जाएंगें जितना उनकी फिल्म पर अनावश्यक रूप से बहस कर विवाद को जन्म देना क्योंकि यह फिल्म जब सेंसर बोर्ड द्वारा पास कर दी गयी है तो इसमें नेताओ के बोलने के लिए क्या बचता है ? यदि सामजिक मुद्दों या अन्य विवादित विषयों पर बनने वाली फिल्मों पर नेताओं का यही रवैया रहा करता है तो फिर सेंसर बोर्ड का दिखावा करने की क्या ज़रुरत है संसद के कुछ सत्र इसलिए भी बुलाये जाने चाहिए जिनमें माननीय लोग केवल फ़िल्में देखकर यह निर्णय करें कि यह फिल्म प्रदर्शित होनी चाहिए या नहीं ? देश का दुर्भाग्य इससे अधिक क्या हो सकता है कि जिस काम के लिए नेताओं को विधान मंडलों और संसद में भेज जाता है वहां पर वे उन कामों को करने के स्थान पर ऐसी बातों पर विचार कर बहस किया करते हैं जबकि इस तरह की बातों को करने के लिए देश में और भी बहुत सारे मंच मौजूद हैं ? देश के नेता अपना वह काम जो उन्हें करना चाहिए आज तक पूरी क्षमता के साथ नहीं कर पाए हैं और अन्य सभी कामों में उनका दखल रोज़ ही बढ़ता जा रहा है जिससे राजनैतिक कारणों से विभिन्न तरह की नई नई समस्याएं भी जन्म लेने लगी हैं जिनका कोई मतलब भी नहीं होना चाहिए.            
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