मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 15 मार्च 2013

सोनिया के १५ वर्ष

                                  कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने इस पद पर अपने १५ वर्ष पूरे कर लिए और जैसा कि आम तौर पर भारतीय राजनीति में नहीं होता है ठीक उसके विपरीत तर्ज़ पर उन्होंने ने भी कई बार ऐसे चौंकाने वाले निर्णयों को लिया जिनको देखने की भारतीय राजनीति को कभी भी आदत नहीं रही थी. यह सही है कि जब सोनिया ने कांग्रेस के सबसे बड़े पद को संभाला था तब पार्टी में निराशा का माहौल था जिसका कारण शायद यह भी था कि आज़ादी के पहले और बाद में जिस तरह से नेहरु और इंदिरा का वर्चस्व पार्टी पर रहा था उसके बाद पार्टी के नेताओं कि यह मानसिकता बन गयी थी कि वे इस परिवार से अलग हटकर अपनी पार्टी की कल्पना भी नहीं करना चाहते थे और इस परिवार में वह जादू इतने वर्षों बाद भी बना हुआ है जो किसी भी पार्टी को सत्ता के करीब रखा सकता है. वैसे तो सोनिया के व्यक्तित्व के बारे में शुरू से ही लोग समझना चाहते हैं और उनके बारे में बहुत सारी पुस्तकें भी लिखी गयी हैं पर आज भी उनके बारे में देश में कोई यह दावे के साथ नहीं कह सकता है कि उनके बारे में स्पष्ट रूप से कुछ कहा और समझा जा सकता है ?
              उनकी और ममोहन सिंह की टीम ने जिस तरह से देश को चलाया है वह भी असाधारण है क्योंकि आज़ाद भारत के इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है कि दिल्ली में सत्ता के दो केंद्र हैं पर उनमें आज तक कोई मतभेद नहीं पैदा हो पाया है शायद इसके पीछे सोनिया मनमोहन की यह समझ भी है कि पार्टी का काम सोनिया और सरकार का काम मनमोहन के जिम्मे रख दिया गया है. मनमोहन पर इस बात का कोई दबाव नहीं है कि कल क्या होगा अगर पार्टी को सत्ता तक पहुँचने लायक जनमत नहीं मिला क्योंकि वे इस चिंता से परे हैं और यह ज़िम्मेदारी निभाने का काम पूरी तरह से सोनिया पर ही है. संप्रग की दोनों ही पारियों में मनमोहन और सोनिया को विभिन्न राजनैतिक दलों के सहयोग की क़ीमत चुकानी पड़ी है वह भी कहीं न कहीं से उनकी मजबूरियों को ही दिखाता है. सोनिया ने आज तक जो कुछ भी किया वह कांग्रेस और विपक्ष दोनों के नज़रिए से अलग अलग ही है पर उन्होंने कई बार जिस तरह से पार्टी में वरिष्ठों को सम्मान देने या उचित पद देने में उनकी क़ाबलियत पर ध्यान नहीं दिया उससे उनकी कड़ी प्रशासक की छवि पर आंच आई है क्योंकि कई बार ऐसे अकर्मण्य मंत्रियों के पास बहुत महत्वपूर्ण विभाग को भी उन्होंने रखा है जिसके साथ वे न्याय नहीं कर सके फिर भी उन्हें आज भी ढ़ोया जा रहा है.
          पार्टी की सरकार तो आती जाती रहती है पर जिस तरह से क्रियाशीलता के मुद्दे पर सोनिया को इन काम काज में ढीले ढाले वरिष्ठों की अनदेखी करनी चाहिए थी वे नहीं कर सकीं जिसका असर उनकी नेतृत्व क्षमता पर विपक्षियों द्वारा ऊँगली उठाने के रूप में सामने आया. वरिष्ठों को पार्टी में समुचित स्थान दिया जाना उचित है पर केवल वरिष्ठता ही केवल एक मात्र पैमाना नहीं होनी चाहिए और उन्हें आने वाले समय में अपनी इस तरह की रणनीति में बदलाव करने के बारे में सोचना ही होगा. राहुल के मामले में भी जिस तरह से उन्होंने स्पष्ट तौर पर कई वर्षों तक उनके लिए विकल्पों को खुला रखा वह भी पार्टी में राहुल के लिए बहुत अच्छा नहीं रहा क्योंकि उससे यह संदेश भी गया कि राहुल संभवतः जिम्मेदारियों से भागना चाहते हैं. राजनीति में कुछ भी केवल एक या दो चुनावों के लिए नहीं होता है उसके लिए लम्बी तैयारियां करनी पड़ती हैं इसलिए उन्हें भी राहुल को उसी रूप में तैयार करना चाहिए. आज वंशवाद का आरोप लगाने वाला कोई भी दल यह नहीं कह सकता है कि उसके यहाँ पर वंश वाद का पोषण नहीं किया जा रहा है क्योंकि पूरे भारत क्या दक्षिण एशिया में ही यह चलन बहुत लम्बे समय से चला आ रहा है जिससे पूरे उप महाद्वीप का पीछा आसानी से नहीं छूटने वाला है.          
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