इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में अपनी बात को रखते हुए सेनाध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह ने जिस तरह से आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट (अफस्पा) पर अपनी बेबाक राय रखी वह घाटी में सेना की वास्तविक स्थिति को ही परिलक्षित करती है क्योंकि वहां पर जिन परिस्थितियों में सेना अपना काम कर रही है वह किसी भी तरह से सामान्य से भी ख़राब हैं और उस तरह के माहौल में काम करने के लिए कुछ विशेष अधिकारों की आवश्यकता तो पड़ती ही है पर घाटी में सक्रिय आतंकियों की तरह ही वहां के राजनैतिक दल भी केवल आतंकियों के दबाव के कारण ही हर महत्वपूर्ण अवसर पर सेना के इस अधिकार को घाटी में वापस लिए जाने की वक़ालत किया करते हैं. ऐसा नहीं है कि इन नेताओं को वास्तविक स्थिति का ज्ञान नहीं है पर घाटी के अधिकांश क्षेत्रों में आतंकियों के प्रभाव या जनता द्वारा मजबूरी में आतंकियों को दिए जा रहे समर्थन के बीच वे भी ऐसा ही कुछ भी मांगना शुरू कर देते हैं जबकि ऐसा नहीं किया जाना चाहिए जो लम्बे समय बाद मिली इस शांति को आसानी से खोने का काम करने में आतंकियों की मदद करने वाला साबित हो ?
सेनाध्यक्ष का यह कहना बिलकुल ठीक है कि सेना को वहां मरने में मज़ा नहीं आ रहा है क्योंकि केंद्र सरकार की नीतियों के तहत ही सेना वहां पर अपनी गतिविधियों को सामान्य से अधिक रूप में चलाती है क्योंकि आज घाटी की जो स्थिति है वह हमारे नेताओं की लम्बे समय से की जा रही ग़लतियों का ही परिणाम है. सेना देश की सरकार के आदेश को मानने के लिए ही है और यदि सरकार कोई राजनीति निर्णय लेकर वहां सेना से यह विशेषाधिकार वापस लेना चाहती है तो इसके गंभीर परिणाम ही होंगें क्योंकि नेता कभी भी सुरक्षा विशेषज्ञ नहीं हो सकता है और इस तरह की असाधारण परिस्थितियों में कोई भी नेता मुश्किल से शांत होते कश्मीर को फिर से उस दलदल में धकेलने का काम करने की हिम्मत नहीं जुटा पायेगा जिससे वहां का माहौल एक बार फिर से ख़राब हो जाए. शायद यह पहली बार ही है कि किसी सेनाध्यक्ष ने अपनी बात को इतने स्पष्ट रूप में देश दुनिया के सामने रखा है साथ ही एक अनुशासित सेना होने का परिचय देते हुए बिक्रम सिंह ने यह भी कहा है कि सरकार के निर्णय को सेना मानेगी पर यह समय अभी सही नहीं है.
पाकिस्तान की जिस तरह से कश्मीर में गड़बड़ी फ़ैलाने की मंशा जग ज़ाहिर है और २०१४ में अफ़गानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद इन इस्लामी कट्टरपंथियों के पास कोई ख़ास काम नहीं रह जायेगा तो हो सकता है कि ये एक बार फिर से कश्मीर को अपना निशाना बनाने की कोशिशें शुरू कर दें ? उस परिस्थिति के लिए अभी से ही देश की सेना और सरकार के पास एक ठोस कार्य योजना होनी ही चाहिए और किसी भी तरह से सेना के अधिकार या गतिविधियों में कोई रोक टोक नहीं होनी चाहिए जिससे आतंकियों की समझ में यह आ जाए कि उनके लिए पहले की तरह कश्मीर में घुसपैठ कर कुछ भी करना उतना आसान नहीं रहने वाला है. केंद्र सरकार को इस मसले पर पूरे देश को विश्वास में लेना चाहिए और जब तक कश्मीर घाटी में स्थायी शांति नहीं आती है तब तक इस तरह के कानून को पूरी तरह से लागू रखने के बारे में संसद में ही एक प्रस्ताव लाना चाहिए जिससे कोई भी सरकार या दल अपने क्षुद्र स्वार्थों के चलते इस तरह की मांग रखने से पहले कई बार सोचने को मबूर हो जाए. देश को सेना और अर्ध सैनिक बलों की मज़बूती पर पूरा यकीन है पर जिन नेताओं को वह सरकार चलाने के लिए भेजती है उन पर उसे बहुत कम ही भरोसा रहता है इसलिए अब राजनैतिक तंत्र को अपनी स्थिति स्पष्ट करने की ही आवश्यकता है.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
सेनाध्यक्ष का यह कहना बिलकुल ठीक है कि सेना को वहां मरने में मज़ा नहीं आ रहा है क्योंकि केंद्र सरकार की नीतियों के तहत ही सेना वहां पर अपनी गतिविधियों को सामान्य से अधिक रूप में चलाती है क्योंकि आज घाटी की जो स्थिति है वह हमारे नेताओं की लम्बे समय से की जा रही ग़लतियों का ही परिणाम है. सेना देश की सरकार के आदेश को मानने के लिए ही है और यदि सरकार कोई राजनीति निर्णय लेकर वहां सेना से यह विशेषाधिकार वापस लेना चाहती है तो इसके गंभीर परिणाम ही होंगें क्योंकि नेता कभी भी सुरक्षा विशेषज्ञ नहीं हो सकता है और इस तरह की असाधारण परिस्थितियों में कोई भी नेता मुश्किल से शांत होते कश्मीर को फिर से उस दलदल में धकेलने का काम करने की हिम्मत नहीं जुटा पायेगा जिससे वहां का माहौल एक बार फिर से ख़राब हो जाए. शायद यह पहली बार ही है कि किसी सेनाध्यक्ष ने अपनी बात को इतने स्पष्ट रूप में देश दुनिया के सामने रखा है साथ ही एक अनुशासित सेना होने का परिचय देते हुए बिक्रम सिंह ने यह भी कहा है कि सरकार के निर्णय को सेना मानेगी पर यह समय अभी सही नहीं है.
पाकिस्तान की जिस तरह से कश्मीर में गड़बड़ी फ़ैलाने की मंशा जग ज़ाहिर है और २०१४ में अफ़गानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद इन इस्लामी कट्टरपंथियों के पास कोई ख़ास काम नहीं रह जायेगा तो हो सकता है कि ये एक बार फिर से कश्मीर को अपना निशाना बनाने की कोशिशें शुरू कर दें ? उस परिस्थिति के लिए अभी से ही देश की सेना और सरकार के पास एक ठोस कार्य योजना होनी ही चाहिए और किसी भी तरह से सेना के अधिकार या गतिविधियों में कोई रोक टोक नहीं होनी चाहिए जिससे आतंकियों की समझ में यह आ जाए कि उनके लिए पहले की तरह कश्मीर में घुसपैठ कर कुछ भी करना उतना आसान नहीं रहने वाला है. केंद्र सरकार को इस मसले पर पूरे देश को विश्वास में लेना चाहिए और जब तक कश्मीर घाटी में स्थायी शांति नहीं आती है तब तक इस तरह के कानून को पूरी तरह से लागू रखने के बारे में संसद में ही एक प्रस्ताव लाना चाहिए जिससे कोई भी सरकार या दल अपने क्षुद्र स्वार्थों के चलते इस तरह की मांग रखने से पहले कई बार सोचने को मबूर हो जाए. देश को सेना और अर्ध सैनिक बलों की मज़बूती पर पूरा यकीन है पर जिन नेताओं को वह सरकार चलाने के लिए भेजती है उन पर उसे बहुत कम ही भरोसा रहता है इसलिए अब राजनैतिक तंत्र को अपनी स्थिति स्पष्ट करने की ही आवश्यकता है.
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सटीक आलेख के लिए साधुवाद!
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