मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

लोकायुक्त-मोदी की जीत पर हार किसकी ?

                                गुजरात में २००३ से लोकायुक्त मुद्दे पर शुरू से ही विवाद होने के कारण इससे जिस तरह से निपटा गया वह हमारे देश के मज़बूत राजतन्त्र और कमज़ोर और कानून से बंधे हुए न्यायतंत्र की सीमाओं को संदर्भित करने का एक अच्छा उदाहरण हो सकता है. सरकारी काम काज में पारदर्शिता और उस पर किसी तरह के नियंत्रण की मंशा के साथ ही देश में लोकायुक्त की परिकल्पना की गई थी पर आज तक इस कथित संवैधानिक पद के साथ विभिन्न राज्यों में जिस तरह की खींचतान मचाई गई है वह किसी भी तरह से उचित नहीं कही जा सकती है. कहीं पर लोकायुक्त को कोई अधिकार ही नहीं प्राप्त हैं तो कहीं पर वे केवल सिफारिशें ही कर सकते हैं जो शत प्रतिशत राजनैतिक नफा नुक्सान पर विचार कर ही आगे बढ़ पाती हैं. सुशासन के कथित मुद्दे पर लगातार चुनाव जीतते आ रहे नरेन्द्र मोदी के पास राष्ट्रीय राजनीति में अपनी अभी अभी शुरू हुई सहभागिता को बढ़ाने के लिए यह मुद्दा इतना अच्छा था कि वे इसमें कोर्ट का सम्मान करते हुए राज्यपाल द्वारा नियुक्त लोकायुक्त को स्वीकार कर लेते या उनसे नए सिरे से लोकायुक्त कि नयी प्रक्रिया शुरू करने का निवेदन करते.
                                जिस तरह से अन्ना हजारे कड़े लोकपाल कानून के लिए संघर्ष कर रहे हैं उस स्थित में अब उन्हें और देश को यह स्पष्ट ही हो जाना चाहिए कि जंतर मन्तर पर केवल बातें करने वाले नेता और उनके दल अपने स्वार्थों के लिए कुछ भी कर सकते हैं. भाजपा अन्ना का तो समर्थन करती नज़र आती है पर साथ ही मोदी के इस तरह के अतिवादी क़दमों पर चुप्पी लगा जाती है. ऐसा नहीं है कि भाजपा में उनके ख़िलाफ़ कोई बोल नहीं सकता है पर जिस तरह से केवल २०१४ के चुनावों में मोदी ही उनको एक मात्र तारणहार दिखाई दे रहे हैं उस परिस्थिति में पार्टी के अन्य नेताओं ने अपनी आवाज़ को या तो धीमा कर लिया है या फिर बोलना ही बंद कर दिया है ? नीतियों और आदर्शों की लम्बी चौड़ी बातें करने वाली भाजपा के पास अब संसद से सड़क तक लोकपाल समेत यह मुद्दा हाथ से जाता रहा है क्योंकि अब अन्य दल अपने को बचने के लिए हर बार गुजरात का उदाहरण देने से बाज़ नहीं आयेंगें ? सदन में अब पारदर्शिता की बातें करते समय इस मुद्दे पर भाजपा की आवाज़े कुछ धीरे ही सुनाई देंगीं जिसका सीधा नुकसान देश को ही होने वाला है.
                               आज़ादी के बाद से अपनी आवश्यकता और त्वरित लाभ के लिए जिस तरह से देश के हर दल ने कानून का मज़ाक बनाया है वह उनके लिए कुछ लाभ तो लेकर आ सकता है पर आने वाले समय में एक गलत परंपरा का पोषक भी बनता जा रहा है. आरक्षण, शाहबानो प्रकरण और अन्य भी पता नहीं कितने मुद्दे ऐसे हैं जिन पर कोर्ट ने बहुत बार देश हित में संविधान के अनुसार अपने निर्णय दिए हैं पर क्या कभी राजनेताओं ने उस पर अमल भी किया है ? बल्कि नेताओं ने अपने लाभ के लिए वोट बटोरने में सक्षम नीतियों का निर्धारण करने में देर नहीं लगाई. सभी दल केवल अपनी ज़बान हिलाकर यह कहते हैं कि वे कोर्ट का सम्मान करते हैं पर आज तक संविधान द्वारा प्राप्त विधायी शक्तियों के दम पर उन्होंने जिस तरह से कोर्ट की लगातार अनदेखी ही की है उसे किस तरह से देश के हित में कहा जा सकता है ? कांग्रेस पर ऐसे आरोप हमेशा से ही लगते रहे हैं और उसने अपने वोट बैंक के लिए ऐसा बहुत बार किया है पर भाजपा को इस तरह के निर्णय से क्या लाभ होने वाला है यह खुद भाजपा को नहीं पता पर उसकी तरफ से देश के भावी के रूप में सामने लाये जा रहे मोदी की कार्यशैली के बारे में उन्हें अब राष्ट्रीय स्तर पर उनका गुजराती स्वाद चखने के लिए तैयार होना ही पड़ेगा.    
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