मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 11 जून 2013

सर्वदलीय बैठक और नक्सली निहितार्थ

                                          छत्तीसगढ़ में प्रदेश के शीर्ष कांग्रेसी नेतृत्व पर घात लगाकर किये गए हमले के बाद केंद्र द्वारा बुलाई गयी बैठक में जिस तरह से सभी राजनैतिक दलों ने इस बार पर एक स्वर में क़दम उठाने की बात का समर्थ किया कि लोकतंत्र में किसी के भी द्वारा इस तरह की घृणित हत्याओं की कार्यवाही करने का हर स्तर पर कड़ा प्रतिरोध किया जाएगा उससे यही लगता है आज तक हमारे नेताओं ने पुरानी ग़लतियों से कोई सबक ही नहीं सीखा है. नक्सली अभियान पूरी तरह से कुछ उन लोगों द्वारा शुरू किया गया था जिन्हें लोकतंत्र में आस्था ही नहीं है पर आख़िर बाद में ऐसा क्या हुआ कि इस आन्दोलन को इतना जन समर्थन मिलने लगा और यह पूरे देश के लिए कानून व्यवस्था से जुड़ा हुआ मुद्दा बन गया ? नेताओं ने जिस तरह से यह कहा कि नक्सली विचार धारा का पूरी तरह से विरोध किया जाता है और इसको रोकने के लिए सभी वैध प्रयासों को लागू करने के बारे में केंद्र राज्य मिलकर काम करेंगें जिससे इससे सही तरीके से निपटा जा सके. यह सब सुनने में तो अच्छा लगता है पर जब काम करने का समय आता है तो सभी दलों के नेता अपने ओने रास्ते पकड़ना चाहते हैं ? 
                                           बिना मूल समस्या पर ध्यान दिए आगे बढ़ने का कोई भी प्रयास इस मसले पर सार्थक और सुखद परिणाम नहीं दे सकता है जब तक इस पर गौर नहीं किया जायेगा तब तक परिस्थितियों को सामान्य नहीं किया जा सकता है. इनके ख़िलाफ़ जिस तरह से राज्यों को खुलकर काम करने की छूट मिलने वाली है उसमें यदि अनावश्यक रूप से बल प्रयोग ही किया गया तो पूरी समस्या को सुलझाने में कहीं न कहीं आदिवासियों और स्थानीय लोगों को ही अधिक परेशानियाँ झेलनी पड़ेंगीं क्योंकि सुरक्षा बलों और इन नक्सलियों के बीच में इन्हीं लोगों का नुक्सान आज तक होता रहा है और किसी बड़े अभियान के सञ्चालन में एक बार फिर से वही समस्या सामने आने वाली है ? इस मसले पर केवल बैठक करने के स्थान पर नेताओं को अब ठोस और कारगर नीति बनाने की ज़रुरत है क्योंकि नक्सलियों के चंगुल में स्वेच्छा या दबाव से आये लोगों पर केवल दमन से ही बात संभाली नहीं जा सकती है उसके लिए सही दिशा में पुनर्वास और राहत कार्यों के साथ भ्रष्टाचार मुक्त नेता और प्रशासन की भी आवश्यकता पड़ने वाली है जिसका आज के समय में पूरी तरह से अभाव दिखाई देता है.
                                          इस मसले पर किसी भी स्थिति में सेना का उपयोग कार्यवाही के लिए करने के स्थान पर उसका उपयोग लोगों में सुरक्षा की भावना को मज़बूत करने के लिए किया जा सकता है. देश के लिए यह असामान्य परिस्थिति है और ऐसी स्थिति में यदि सेना को यह ज़िम्मा सौंप दिया जाये तो आने वाले दिनों में सेना इस काम को बखूबी निभा भी सकती है. जब कश्मीर घाटी और अन्य स्थानों पर सेना के कामों का बहुत अच्छा स्वरुप अभी तक सामने आया है तो वहां पर लोगों को देश से जोड़ने की मुहिम में इसका उपयग करने से आख़िर परहेज़ क्यों किया जाना चाहिए ? नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विकास का न पहुँच पाना भी अपने आप में विद्रोह के साथ लोगों को खड़े कर देने का एक कारण बन चुका है इसलिए इस परिस्थिति में यदि विकास को ध्यान में रखकर हम सेना को इससे जोड़ने के लिए उपयोग में लायें तो यह हमारे लिए अच्छा ही साबित होगा. इससे जहाँ सेना को दुर्गम क्षेत्रों में काम करने का अनुभव भी होगा और उसका जन संपर्क भी अच्छा बनेगा जिससे सेना के लिए आने वाले समय में संयुक्त राष्ट्र के लिए सैनिकों को भेजने के लिए भी अच्छा रहेगा. इन क्षेत्रों में सेना अपनी पहुँच को बढ़ाने के लिए अपने स्थायी शिविर भी बना सकती है जिससे स्थानीय विकास पर उसकी नज़र और नक्सलियों पर दबाव बनाने का काम भी आसान हो जायेगा.
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