मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 10 जून 2013

भारतीय बैंकिंग और आवश्यकताएं

                                         देश में नए बैंकों को जल्दी ही लाइसेंस जारी किए जाने की बड़ी क़वायद के बीच इस बात पर भी गौर किया जाना बहुत आवश्यक है कि आज की परिस्थितियों में भारतीय उपभोक्ताओं को किस तरह की बैंकिंग की ज़रुरत है क्योंकि वर्तमान में जिस तरह से तेज़ी से बढ़ती हुई आर्थिक गतिविधियों के बीच सभी को अपने बड़े लाभ के लिए शहरी क्षेत्रों में इस तरह के काम करने की मंशा है वहीं दूसरी तरह उन ग्रामीण क्षेत्रों के बारे में सरकार समेत बैंकिंग क्षेत्र भी नहीं सोचना चाह रहा है जहाँ पर कम आर्थिक गतिविधियों वाला पर बहुत बड़ा भारत रहता है ? देश के बड़े औद्योगिक समूहों समेत डाक विभाग और भारतीय जीवन बीमा निगम भी अपने लिए बड़ी संभावनाओं का पता लगाने के काम में लगे हुए है क्योंकि आने वाले समय में देश में प्रत्यक्ष लाभ हस्तान्तरण के माध्यम से देश के हर कोने में बैंकों की बहुत आवश्यकता पड़ने वाली है जिसको पूरा करने के लिए सभी को सामाजिक रूप से भी सोचने की आवश्यकता है अभी तक जिस तरह से केवल शहर ही प्राथमिकता में रहा करते हैं उस नीति से आगे बढ़कर सोचने का समय आ गया है.
                                         आज भी देश के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों की पहुँच न के बराबर है जिससे वहां से संचलित होने वाली बहुत सारी सरकारी आर्थिक गतिविधियों में वहां के लोगों का आवश्यक जुड़ाव भी नहीं हो पाता है. जिसका सीधा असर वहां के लोगों की आर्थिक सेहत पर भी पड़ता है. देश की महत्वकांक्षी मनरेगा योजना में भी धन हस्तांतरण को खाते में किए जाने के प्रस्ताव के बाद यह समस्या सामने आई कि बहुत से स्थानों पर लोगों तक यह सुविधा पहुँचाने के लिए बैंक ही उपलब्ध नहीं थे. सरकार यदि चाहे तो प्रत्येक जिले में हर बैंक के लिए यह आवश्यक कर दे कि उसे कितने गांवों तक अपनी सेवाओं की पहुँच बनानी है जिससे हर जगह तक कम से कम बैंकों की पहुँच को सुनिश्चित किया जा सके और इस लक्ष्य को पूरा करने में विफल रहने वाले बैंकों से सरकारी योजनाओं के धन वितरण पर भी रोक लगायी जानी चाहिए जिससे सभी बैंक सामाजिक रूप से भी देश से जुड़ने के बारे में सोचना शुरू कर सकें. जब तक बैंकों पर आर्थिक प्रतिबंधों का दर नहीं होगा तब तक कोई भी बैंक अपनी इन सामाजिक ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के बारे में नहीं सोचेगा.
                                          देश के विकास के लिए शहरी क्षेत्र में जो भी संभव है उसके लिए तो सभी प्रयासरत है पर ग्रामीण क्षेत्र की प्रगति और उनको साथ में लिए बिना इस प्रगति को किस तरह से समग्र रूप से पूरे देश में फैलाया जा सकता है यह भी सोचने का विषय है. केवल सामाजिक हित के लिए कार्यरत सहकारी बैंकों के लिए भी यह आवश्यक कर दिया जाना चाहिए कि वे अपने खर्चों को अपने दम पर ही संचालित करें क्योंकि जब उन्हें यह लगने लगता है कि सरकार अपनी मजबूरी में उन्हें संचालित करती ही रहेगी तो वहां पर उस व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा का समावेश हो ही नहीं पाता है आज जिसकी आवश्यकता है. सहकारी आन्दोलन ने जहाँ कुछ प्रदेशों में पूरे परिदृश्य को बदल कर रख दिया है वहीं कुछ प्रदेशों में इससे कुछ भी हासिल नहीं किया जा सका है. केद्रीय रिज़र्व बैंक को इस बारे में भी राज्य सरकारों से बात करनी चाहिए और जिन राज्यों में सहकारी बैंक अच्छे से चल रहे हैं तो दूसरे राज्यों को उसी मॉडल पर विचार करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए. अब समय है कि नए लाइसेंस जारी करने के साथ ही पुराने बैंकों के लिए भी कुछ नयी नीतियों की घोषणा भी की जाए जिससे आने वाले समय में नए और पुराने बैंक मिलकर देश के आर्थिक परिदृश्य को बदलने में सक्षम हो सकें.    
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