मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 21 जून 2013

प्राकृतिक आपदा और प्रबंधन -२

                                      उत्तराखंड में आई तबाही के बाद जिस स्तर पर हमारे सरकारी तंत्र को सक्रिय होना चाहिए था उसमें अभी भी वह तेज़ी दिखाई नहीं देती है जिससे मुश्किल में फंसे हुए लोगों को समय से राहत न मिल पाने और समुचित बचाव के साधन उपलब्ध न होने के कारण आज परिस्थितियां और भी विषम होती जा रही हैं. इस सबके बीच सबसे खेद जनक बात जो सामने आई है कि इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी पर भी राजनैतिक दल जिस तरह से अपनी राजनीति चमकाने में लगे हुए हैं उससे उनकी घटिया मानसिकता का ही पता चलता है. कैग की एक चेतवानी भरी रिपोर्ट जो २४ अप्रैल को ही जारी की गयी थी उसमें उत्तराखंड में २००७ से २०१२ तक आपदा प्रबंधन की किसी भी योजना पर काम न किए जाने पर राज्य सरकार की कड़ी आलोचना की गई है और साथ ही यह भी कहा गया है कि प्राकृतिक संरचना के कारण यहाँ पर बहुत सारे स्थान असुरक्षित भी हैं जिन पर अविलम्ब ध्यान देकर वहां बसे हुए लोगों के पुनर्वास के बारे में एक स्थाई और कारगर नीति बनाए जाने की आवश्यकता भी है पर इस मसले पर दिए गए सुझावों पर कोई अमल होता नहीं दिखाई देता है.
                                         आज हर कोई उत्तराखंड की सरकार पर यह आरोप लगा रहा है कि वह राहत और पुनर्वास के काम को ठीक ढंग से संचालित नहीं कर पा रही है हो सकता कि कमज़ोर आधारभूत ढांचे और दुर्गम स्थानों पर पहुँच न होने के कारण आज भी बहुत सारे इलाक़ों में सरकार पहुँच ही नहीं पा रही हो पर इसका कमी का दुरूपयोग केवल राजनीति करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए. कुछ अतिउत्साही लोग सुप्रीम कोर्ट से भी राज्य और केंद्र के लिए आदेश भी जारी करवा लाए हैं कि वे राहत और पुनर्वास के काम में और तेज़ी लाएं. क्या इस तरह के प्रयासों से सरकार की कार्यक्षमता पर असर नहीं पड़ता है और सामान्य काम काज के सञ्चालन में समस्या उत्पन्न होती है ? देश में राजनीति करने के बहुत सारे अवसर आते ही रहेंगें पर इस तरह से त्रासदी और संत्रास में जी रहे लोगों को सहायता देने के नाम पर कुछ भी राजनीति करना घटिया मानसिकता का ही परिचायक है. अच्छा ही है कि अब केंद्र और राज्यों के नेताओं ने इस परिस्थिति की विकरालता को भांप कर सही दिशा में प्रयास शुरू कर दिए हैं जिसके कुछ दिनों में और अच्छे परिणाम सामने आएंगें.
                                        यहाँ पर आज सबसे बड़ा प्रश्न यात्रियों के साथ स्थानीय निवासियों की सुरक्षा का भी है क्योंकि आज जितना हल्ला केवल यात्रियों को बचाने पर ही मच रहा है उस त्रासदी में राज्य के स्थाई निवासियों को राहत और बचाव सामग्री उपलब्ध करा पाने में सरकार को और कठिनाई हो रही है. इसलिए जिन जगहों तक भी किसी भी तरह से पहुँच बनाई जा पा रही है वहां तक स्थितियों का आंकलन करने की दिशा में ठोस काम भी शुरू किया जाना चाहिए जिससे केवल यात्रा मार्ग और यात्रियों से ध्यान हटाकर स्थानीय लोगों को भी समय रहते सहायता पहुंचाई जा सके. सहायता का स्वरुप इस समय मायने नहीं रखता है क्योंकि जिनके पास घर और खाने के लिए भी कुछ नहीं बचा है यदि उनके लिए टेंट और भोजन के पैकेट ही गिराए जा सकें तो उनके लिए यही बहुत बड़ी मदद हो जाएगी. देश के विभिन्न स्थानों पर इस तरह की आपदा से निपटने के लिए कुशल प्रबंधकों को तैयार करने के बारे में भी अब विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि हमारे विस्तृत और दुर्गम भौगोलिक क्षेत्रों के कारण इस तरह की समस्याओं से निपटना हमारे लिए सदैव ही चुनौती के रूप में सामने आता रहेगा. इस काम में जब तक सरकार के साथ स्थानीय लोगों को नहीं जोड़ा जायेगा तब तक परिस्थितियों में बहुत बड़ा बदलाव संभव नहीं है.    
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