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रविवार, 23 जून 2013

आपत्ति, बचाव और राहत

                           उत्तराखंड में हुई व्यापक तबाही के बाद जिस तरह से देश के नेताओं ने प्रारंभ में अपनी राजनीति भी चमकाने की कोशिशें की उससे यही लगता है कि हमारे नेताओं में अभी भी वह बात विकसित नहीं हो पाई है जिसकी इस विपत्ति की घड़ी में उनसे आशा की जाती है ? यह सही है कि आने वाले दिनों में भारतीय मीडिया और अख़बारों से यह ख़बरें धीरे धीरे अन्दर के पन्नों में चली जाएंगीं और लोग इसे भूलने भी लगेंगें पर क्या हर बात की तरह यह सब हमारी विफलताओं की लम्बी श्रंखला में एक और कड़ी नहीं होगी जिसमें हम पूरी तरह से एक राष्ट्र के रूप में विफल रहे हैं ? जिस संकट कि घड़ी में राजनैतिक तंत्र को एक साथ खड़े होकर राहत और बचाव कार्यों में तेज़ी लाने के प्रयास करने में हाथ बंटवाने चाहिए उसके स्थान पर वे एक दूसरे की टांग खींचकर कुछ उन बातों को ज़्यादा महत्व देने लगते हैं जिनकी कोई आवश्यकता नहीं होती है. इस तरह की अनावश्यक बयानबाजी से जहाँ राहत और बचाव कार्यों पर दबाव बनता है वहीं सेना और अन्य राहत एजेंसियों पर भी कुछ लोग ऊँगली उठाने से नहीं चूकते हैं ?
                          यह सही है कि उत्तराखंड सरकार के पास इस समय ऐसी स्थिति बनी हुई है कि वह चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती है क्योंकि इसके लिए वहां पर आधारभूत ढांचा ही विकसित नहीं किया जा सका है और इन परिस्थितियों के लिए किसी एक सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि विकास के नाम पर जब यूपी से यह प्रदेश अलग हुआ था तो भी कमोबेश यही स्थिति थी और आज की स्थिति के लिए कांग्रेस और भाजपा बराबर के दोषी हैं क्योंकि अलग राज्य के रूप में उत्तराखंड में ये दोनों ही शासन कर चुके हैं ? इस तरह की प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए हमारे पास कोई आपातकालीन व्यवस्था ही नहीं है तो सिवाय सेना पर निर्भर रहने के कोई भी सरकार क्या कर सकती है और जिस बड़ी मात्रा में वहां पर विनाश हुआ है उसमें सही दिशा में मदद के लिए हाथ उठाने के स्थान पर हम के दूसरे पर उँगलियाँ उठा रहे हैं ? सेना ने अपनी पूरी ताक़त राहत और बचाव में झोंक रखी है पर जब तक संपर्क ही नहीं हो पायेगा तब तक किस तरह से मदद की जा सकेगी ?
                          आने वाले समय में ऐसी किसी भी प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए एक विस्तृत कार्य योजना भी होनी चाहिए और इस तरह की किसी भी दुर्गम यात्रा के मार्ग में कुछ सुरक्षित स्थानों को चिन्हित करके वहां पर यात्रियों की संख्या के अनुसार यात्री प्रतीक्षालय बनाए जाने चाहिए जिनका इस तरह की किसी भी आपदा में उपयोग किया जा सके और राहत और बचाव के कार्यों को गति भी दी जा सके क्योंकि प्राकृतिक आपदाएं बता कर नहीं आती हैं और देश के किसी पहाड़ी राज्य में विकास की संभावनाओं का पता लगाते समय केवल आर्थिक पहलुओं को ही ध्यान में नहीं रखना चाहिए क्योंकि जब हम इन दुर्गम स्थानों पर इतने लोगों को केवल आर्थिक लाभ के लिए ही आने जाने देते हैं तो हमारे पास करने के लिए और कुछ शेष ही नहीं रह जाता है. आगे से किस क्षेत्र में कितने यात्री हैं और वे कहाँ से से आये हैं इस बारे में चार धाम यात्रा और हेमकुंड साहिब की यात्रा के समय पूरा हिसाब भी मत वैष्णव देवी स्थापना बोर्ड की तरह रखने की व्यवस्था होने से इस तरह की परिस्थिति में स्थान विशेष पर फंसे यात्रिओं की सही संख्या के अनुसार बचाव कार्य भी चलाये जा सकेंगें.             आपत्ति, बचाव और राहत
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