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बुधवार, 5 जून 2013

राजनैतिक दल और सूचना अधिकार

                                  सीआईसी के राजनैतिक दलों को सूचना के अधिकार के तहत लाने के एक आदेश ने जिस तरह देश के नेताओं और दलों में बेचैनी पैदा कर दी है उससे यही लगता है कि सभी दलों द्वारा कहीं न कहीं पर वित्तीय अनुशासन का अनुपालन नहीं किया जाता है और यदि यह आदेश पूरी तरह से प्रभावी हो गया तो आने वाले समय में राजनैतिक दलों के वित्तीय लेन देन के मामलों लिए पूछे जाने प्रश्नों का उत्तर देना असंभव ही हो जायेगा. आज भी देश में राजनैतिक दल जिस तरह से औद्योगिक घरानों से चंदा लिया करते हैं उसके लिए स्पष्ट नियम है पर सभी दल इन नियमों को ताक़ पर रखकर उनसे बचने की हर जुगत पर ध्यान देते हुए अपने लिए धन का जुगाड़ करते रहते हैं तो इस नए आदेश से पूरे परिदृश्य में एक नया ही परिवर्तन हो सकता है. भ्रष्टाचार और अन्य मुद्दों पर राजनैतिक मजबूरी के तहत भाजपा कांग्रेस का विरोध करती रहती है पर इस मसले पर उसने जिस तेज़ी के साथ कांग्रेस के स्टैंड के साथ अपना मत व्यक्त किया वह सभी दलों के एक जैसा होने पर ही मोहर लगाता है.
                                 आज देश के राजनैतिक दलों के सामने पहचान और जनता की नज़रों में अपने अस्तित्व को बनाये रखने की चुनौती अधिक है क्योंकि विभिन्न सामाजिक कार्यकर्त्ता देश में सूचना अधिकार के तहत बहुत सारी जानकारी को जनता के सामने लाने के लिए संघर्षरत हैं और सभी दलों के लिए धन की व्यवस्था करने के लिए आज जो भी नियम हैं उन्हें जानबूझकर ऐसा ही बनाया गया है जिससे उसमें पारदर्शिता की गुंजाईश कम से कम ही रहे और सभी दल अपने अनुसार जितनी सूचना साझा करना चाहें उतनी ही करें और बाकी को अपने सुविधानुसार छिपा भी सकें ? इस बात का उत्तर तो सभी दलों को देना ही होगा कि वे आख़िर इस मसले पर सारे मतभेदों को भुलाकर एक साथ कैसे आ जाते हैं जबकि किसी भी अन्य परिस्थिति में उनके लिए एक साथ होना नामुमकिन ही होता है ? अब समय आ गया है कि चुनाव आयोग के साथ ही अन्य किसी संस्था के प्रति भी इन दलों की कुछ जवाबदेही बनाई जाये जिससे राजनीति में काले धन के खुले प्रवाह को रोक जा सके.
                                राजनेता या कहकर अपने को नहीं बचा सकते हैं कि उनके अनुसार उन पर नियंत्रण रखने के लिए केवल चुनाव आयोग ही काफी है यदि चुनाव आयोग के माध्यम से पूरे राजनैतिक तंत्र पर पूरे वर्ष लगाम लगाया जाना संभव होता तो यह सब हो चुका होता क्योंकि चुनाव आयोग की भूमिका केवल चुनावों के समय ही अधिक प्रभावी दिखाई देती है और उसके बाद वह अन्य कामों में उलझा रहता रहता है जिससे पूरे वर्ष राजनैतिक दलों पर जिस तरह का अंकुश लगा रहना चाहिए वह कहीं से भी दिखाई नहीं देता है और पूरे दलीय लोकतंत्र पर इसके माध्यम से प्रश्नचिन्ह लगाने का अवसर कुछ लोगों को मिलता रहता है. यदि पूरे देश में सभी राजनैतिक दल स्वेच्छा से अपने वित्तीय लेन देन को और भी पारदर्शी बनाए जाने ले लिए प्रयासरत दिखाई देते तो इस तरह के किसी आदेश की आवश्यकता ही नहीं पड़ती पर आज हर जगह पर सभी अपने में वित्तीय अनुशासन में बांधना ही नहीं चाहते हैं जिससे आम जनता में दलों के प्रति संदेह का जन्म होता है. यदि सभी दलों को यह आदेश इतना नागवार गुज़र रहा है तो इस बारे में वे अपनी तरफ़ से कुछ ऐसा प्रस्ताव भी लाएं जिससे दलों के वित्तीय आंकड़ों को और भी पारदर्शी बनाया जा सके पर समस्या को ख़त्म करने के स्थान पर नयी बहस को जन्म देकर मुद्दे से ध्यान हटाने की भारतीय दलों की मंशा यहाँ पर भी हावी होती दिखती है.      
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