मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

रविवार, 1 सितंबर 2013

किशोर न्याय और किशोरी अन्याय

                                                देश में बालिग होने की सीमा तय करने और उसमें उलझते हुए मसलों की आशंका के बीच जिस तरह से किशोर न्याय बोर्ड ने दिल्ली बस कांड के एक कथित नाबालिग को केवल तीन साल की ही सजा सुनाई है उससे यही लगता है कि हम अब भी बहुत पुराने और निष्प्रभावी कानूनों के साथ आज के तेज़ युग में अपने को सुरक्षित रखने का प्रयास कर रहे हैं जबकि आज पूरे किशोर न्याय को ही समय के अनुसार परिवर्तित करने की बहुत आवश्यकता है. केवल अपराधी की आयु को ही यदि पैमाना बनाकर उन्हें तीन साल में छोड़ने का चलन सामने आया तो बड़े बड़े अपराधी और आतंकी भी इस नियम का लाभ उठाकर पूरे देश में जंगल राज स्थापित कर सकते हैं ? हर व्यक्ति की मानसिक स्थिति अलग होती है और किसी भी परिस्थिति में किन्हीं दो मसलों में केवल उम्र को ही पैमाना बनाकर न्याय नहीं किया जा सकता है पर आज केवल कानून के अनुसार काम करने वाले बोर्ड और न्यायाधीश इससे अधिक कुछ कर भी नहीं सकते हैं जबकि अन्य मामलों में उनकी तरफ से कई बार अति न्यायिक सक्रियता भी दिखाई देती है.
                                              सामान्य अपराधों में किसी किशोर को यदि इस कानून के माध्यम से बचा कर सुधरने का अवसर दिया जाये तो बात समझ में आती है पर जिस तरह से महिलाओं के ख़िलाफ़ इतने घिनौने अपराध में शामिल अपराधी को इस कानून से बचाव का रास्ता दिया जा रहा है वह लम्बे समय में समाज पर बुरा असर ही डालने वाला है क्योंकि इस तरह से अपनी उम्र का हवाला देकर कोई भी १८ साल से कम उम्र का अपराधी कुछ भी करके केवल तीन साल में ही जेल से बाहर आ सकता है ? अब समय है कि किशोरों द्वारा किये जाने वाले अपराधों को केवल एक कानून से ही न चलाया जाये और उसके स्थान पर आज यह विचार किया जाये कि कुछ अपराधों को किशोर न्याय बोर्ड द्वारा देखा जाये और किसी भी हत्या या अन्य बड़े और घिनौने अपराधों के लिए उन्हें भी सामान्य अपराधी की तरह ही देखा जाये और उनके लिए उतनी ही सज़ा भी रखी जाए जितनी बालिग अपराधियों के लिए निर्धारित की गयी है. इससे जहाँ बाल अपराध कानून के पीछे छिपकर कोई इसका दुरूपयोग नहीं कर पायेगा और समाज में कानून का राज भी स्थापित हो सकेगा.
                                              अब इस बात पर समाज में बहस होनी ही चाहिए कि इस तरह की अपराधी मानसिकता से ग्रसित बच्चों को समाज आख़िर तीन साल बाद किस तरह से बर्दाश्त करेगा क्योंकि वह जिस भी मोहल्ले में जायेगा उस पर आरोप तो होगा ही और कई बार उसके अपराध और कम सज़ा को देखकर क्या किसी अन्य को उस जैसा अपराध करने से रोका जा सकेगा ? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका आज समाज और सरकार दोनों को ही उत्तर खोजना ही होगा क्योंकि अब समाज में जितनी जागरूकता बढ़ी हुई है उसमें कुछ भी बहाने बनाकर किसी ऐसे लचर कानून को लम्बे समय तक नहीं चलाया जा सकता है ? जिस किशोर कानून का सहारा लेकर इस अपराधी की सज़ा कम हो गयी है क्या वह मानसिक और शारीरिक तौर पर वास्तव में किशोर ही है यह कौन तय करेगा क्योंकि केवल काग़ज़ों के चंद टुकड़ों के सहारे से किसी कोर्ट में बहस तो जीती जा सकती है पर समाज पर लगने वाली उस खरोंच को कभी भी महसूस नहीं किया जा सकता है. अब समय है कि किशोर अपराधों का वर्गीकरण करके उसके अनुसार ही किशोर अपराधियों को कानून का एक हद तक ही लाभ मिलना चाहिए और उसके बाद कानून सभी पर सामान रूप से लागू होना ही चाहिए.                  
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1 टिप्पणी:

  1. ऐसे फैसे ही समाज में अपराध को बढ़ावा दने का कार्य कर रहे है, नाबालिगों को तो अपराध करने की खुली छुट दे देनी चाहिए न्यायपालिका को.

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